Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 15
________________ प्रसंग पहला विसूचिका रोग से पीडित हो गये। फिर प्रभु के कहने से अनाज निकालने लरो नो मुंह खुला होने से बैल उसे खाने लगे। प्रभुने कहाबैलों के मुंह बांध दो। उन्होंने मुंह बांव तो दिए. किन्तु काम पूर। होने पर भी अज्ञानवश नहीं खोले अतः वारह घड़ी तक बैल भूखेप्यासे ही खडे रहे। फिर पता लगने पर प्रभुने उनके मुंह खुलवाए । जंगलमे स्वाभाविक आग पैदा हुई । रत्न समझकर लोग उसे लेने दौडे। सबके हाथ-पैर आदि जल गये। प्रभु ने कहा-यह आग है। इसमे अनाजको पकायो । बस. कहने की हो देरी थी मनोंबन्ध अनाज़ आग मे डाल दिया गया, किन्तु नहीं निकालने से वह भस्म हो गया । तब प्रभु ने खुद मिट्टी का बर्तन बना कर लोगों को बर्तन बनाना सिखलाया। उस दिन से लोग बर्तनों मे अनाज पका कर खाने लगे। ऐसे जिस-जिस काम की आवश्यकता होती गई, मगवान् बतलाते गये एव उसका फैलाव जगत् में होता गया । दीक्षा और अन्तरायकर्म संसारनीति की शिक्षा देकर विश्व को धर्मनीति सिखलाने के लिये चार हजार पुरुपों के साथ प्रभु ने दीक्षा ली, किन्तु अन्तरायकर्मवश बारह महीनों तक अन्न-पानी नहीं मिला। कोई हाथी-घोड़ा हाजिर करता था। कोई सोना-चॉदी हीरे-पन्ने आदि धन लेने की प्रार्थना करता था तथा कोई रोटी पकाने के लिये कुंवारी कन्या लीजिए, ऐसे कहता था, लेकिन रोटी-पानी लेने के लिये कोई भी नहीं कहता था, कारण आज से पहले कोई भिक्षुक था ही नहीं। अनेकमत भूख-प्यास से पीड़ित होकर सारे के सारे चेले भाग गये। कोई कन्दाहारी तापस बन गया तो कोई मूल तथा फलाहारी । कोई

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