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इस प्रकार श्रावक अर्थात् सद्गृहस्थ के लिए दान, पूजा आदि मुख्य कार्य है । इनके अभाव में कोई भी मनुष्य सद्गृहस्थ नहीं बन पाता । सुनिधर्म में ध्यान और अध्ययन करना मुख्य है । इनके बिना मुनिधर्म का पालन करना व्यर्थ है ।" याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मल और मह ये सब पूजाविधि के पर्यायवाची शब्द हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से छह प्रकार की पूजा का विधान है।" अरहतादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किए जाते हैं, वह नाम पूजा कहलाती है । वस्तु विशेष में अरहन्तादि के गुणों का आरोपण करना वस्तुत: स्थापना कहलाती है । यह दो प्रकार से उल्लिखित है, यथा
१. सद्भाव स्थापना
२. असद्भाव स्थापना
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(ब) देव पूजा गुरूपास्तिः स्वाध्याय संयमस्तपः । दानं चेतिगृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।
- पंचविंशतिका, आचार्य पद्मनंदि, अधिकार संख्या ६, श्लोक संख्या ७, जीवराज ग्रंथमाला, शोलापुर, प्रथम संस्करण, सन् १९३२ ।
१. दाणं पूयामुक्खं सावयवम्मेण सावया तेण विणा । झणझणं मुक्खं जइ धम्मे तं विणा तहा सोबि ॥
--- रयणसार, कुन्दकुदाचार्य, कुन्दकुन्द भारती, श्री वीर - निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर, वीर निर्वाण संवत् २५००, गाथांक १०, पृष्ठ ५६ ।
यागोयज्ञ:
कृतुः पूजा सपर्येज्याध्वरोमखः ।
मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः ||
- महापुराण, जिनसेनाचार्य, सर्ग संख्या ६७, श्लोक संख्या १९३, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण सन् १९५१ ई० ।
३. णाम - टूवणा दव्वे - खिते काले वियाणा भावे य । छवि पूया भणिया समासओ जिणवरिदेहि ||
-- श्रावकाचार, आचार्य वसुनंदि, गाथा संख्या ३८१, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण वि० सं० २००७ ।
४. उच्चारि ऊण णामं अरूहाईणं विसुद्ध देसम्मि । पुष्काणि जं विविज्जंति वष्णिया णाम पूया सा ॥
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- श्रावकाचार, आचार्य वसुनंदि, गाथांक ३८२, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण, वि० सं० २००७ ।