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जिसमें बतपालन कर मन्त में समाधिमरण' को प्रवृत्ति विद्यमान रहती है उसे साधक भावक कहा जाता है।
संसार के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से भयभीत रहते हैं। कुखों से बचने के लिए आत्मा को समझ कर उसमें लीन होना सच्चा उपाय करते हैं। मुनिराज अपने पुष्ट पुरुषार्थ द्वारा मात्मा का सुख विशेष प्राप्त कर लेते हैं और गृहस्थ अपनी भूमिकानुसार अंशतः सुख प्राप्त कर पाते हैं । उक्त मार्ग में चलने वाले सम्यक् दृष्टि धावक के आंशिक शुबरूप निश्चय आवश्यक के साथ-साथ शुभ विकल्प भी आते हैं, उन्हें व्यवहार आवश्यक कहते हैं।' भावक के आवश्यक व्यवहार छह प्रकार के बतलाए गए हैं, यथा
१. सामायिक २. स्तवन ३. वंदना ____४. प्रतिक्रमण ५. प्रत्याख्यान ६. उत्सर्ग
ये ग्यारह प्रतिमा देश व्रतधारी सम्यग्दृष्टी जीवों को जिनराज ने कही हैं। -समयसार नाटक, बनारसीदास, चतुर्दशगुणस्थानाधिकार, छंद संख्या ५७, श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ़ (सौराष्ट्र), प्रपम
संस्करण वि० सं० २०२७, पृष्ठ ३८५।। १. सम्यक्काय कषाय लेखना-सल्लेखना। कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च
कषायाणां तत्कारणहापन क्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना । अर्थात् अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है, समाधि मरण है अर्थात् बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। -सर्वार्थसिद्धि, आचार्य पूज्यपाद, अध्याय ७, सूत्र सं० २२, भारतीय
ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस-५, प्रथम संस्करण १९५५, पृष्ठ ३६३ । २. वीतराग विज्ञान पाठमाला, भाग १, डॉ. हुकुमचन्द्र भारिल्ल, श्री
टोडरमल स्मारक भवन, ए-४ बापू नगर, जयपुर-४, द्वितीय संस्करण
१९७०, पृष्ठ १७। ३. (म) सामायिकं स्तवः प्राज वंदना सप्रतिक्रमा ।
प्रत्याख्यानं सनूत्सर्गः षोडावायक मोरितम ॥ भावकाचार, आचार्य अमितमति, अधिकार संख्या., . श्लोक संख्या २६, सं०प० वशीधर, जीवराज माला, शोलापुर . प्रथम संस्करण वि० सं० १९७६ ।