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विक्रम की उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में दिगम्बर परम्परा की श्रमणियों के कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होते। इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पुनः इस परम्परा की आर्यिका श्री चन्द्रमती जी का नाम सर्वप्रथम जानने को मिलता है, वे 101 वर्ष की आयु पूर्ण कर दिल्ली में स्वर्गवासिनी हुई। इनके पश्चात् घोर तपस्विनी श्री धर्ममती माताजी, सम्पूर्ण रसों की आजीवन प्रत्याख्यानी श्री वीरमती जी, अनेकों मुनि आर्यिका ऐलक क्षुल्लक व ब्रह्मचारियों की निर्माति विदुषी श्री इन्दुमती जी हुई। वर्तमान में दिगम्बर संघ की सर्वप्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका गणिनी श्री ज्ञानमती जी हैं, इन्होंने बड़े-बड़े आचार्यों की टक्कर के गूढ दार्शनिक ग्रंथों का प्रणयन किया, ऐसे 150 से भी अधिक ग्रंथों की रचना कर ये साहित्यकी के रूप में प्रतिष्ठित हुई। आर्यिका सुपार्श्वमती जी जिनकी ज्ञान-निर्जरित लेखनी से बीसियों ग्रंथ प्रसुटित हुए। प्रत्येक क्षेत्र में विद्वत्ता को प्राप्त ये धर्म व शासन को चार चाँद लगाने वाली हुईं। गणिनी विजयमती जी इक्कीसवीं शताब्दी की सर्वप्रथम गणिनी, बहुभाषाविद्, अनेक धर्म संस्थाओं की प्रेरिका एवं विपुल साहित्यकी विशिष्ट संयमी साध्वी हैं। इसी प्रकार दर्शनशास्त्र की प्रकाण्ड पंडिता श्री जिनमती जी, दुर्गम ग्रन्थों की टीकाकर्ती, ज्ञान की अनुपम निधि श्री विशुद्धमती जी, इक्कीसवीं सदी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी गणिनी एवं सर्वाधिक दीक्षा प्रदातृ श्री विशुद्धमती जी, कठोर साधिका आर्यिका श्री अनन्तमती जी, क्षुल्लिका श्री अजितमती जी, कवयित्री लेखिका तपस्विनी क्षुल्लिका श्री चन्द्रमती जी, जिनमती जी आदि ज्योतिपुञ्ज महान आर्यिकाओं का वर्णन इस अध्याय में किया गया है।
पंचम अध्यायः श्वेताम्बर परम्परा
जैनधर्म की श्वेताम्बर परम्परा अपने अस्तित्त्वकाल से ही अति विस्तृत समृद्ध और परिष्कृत परम्परा रही है। इस परम्परा की 3221 श्रमणियों का उपलब्ध विवरण पंचम अध्याय में समाविष्ट किया गया है। खरतरगच्छ का इतिहास विक्रमी संवत् 1080 से प्रारम्भ होकर अद्यतन गतिमान है। वर्तमान में इस गच्छ की श्रमणियों की संख्या 240 है। तपोगच्छ का उदयकाल विक्रम की तेरहवीं सदी है, वहाँ से प्रारम्भ होकर वि. सं. 1791 तक यह परम्परा प्राप्त होती है, उसके पश्चात् डेढ़ सौ-दोसौ वर्षों की अवधि के बाद संवत् 1926 से पुनः इस गच्छ की श्रमणियों का इतिहास वर्तमान तक अनेक समुदायों में विभक्त आचार्यों के नेतृत्त्व में बरसाती नदी के समान विशुद्ध रूप से प्रवहमान है। विशेष रूप से आचार्य आनन्दसागरसूरीश्वर, विजय प्रेमरामचंद्रसूरीश्वर, विजय प्रेम भुवन भानुसूरीश्वर, विजय जितेन्द्रसूरीश्वर, विजय कलापूर्णसूरीश्वर, विजय नेमीसूरीश्वर, विजय नीतिसूरीश्वर, विजय सिद्धिसूरीश्वर (बापजी), विजय वल्लभसूरीश्वर, विजय मोहनसूरीश्वर, विजय रामसूरीश्वर (डहेलावाला), विजय बुद्धिसागर सूरीश्वर, विजय हिमाचलसूरीश्वर, विजय शांतिचन्द्रसूरीश्वर, विजय अमृतसूरीश्वर, आचार्य मोहनलाल जी महाराज विमलगच्छ, सौधर्म वृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक समुदाय की श्रमणियों से यह गच्छ शोभायमान हो रहा है। ईस्वी सन् 2005 की गण्नानुसार इन श्रमणियों की कुल संख्या 5784 है। अंचलगच्छ का अभ्युदय काल विक्रमी संवत् 1146-1778 एवं उसके पश्चात् संवत् 1955 से अद्यतन चल रहा है। उपकेशगच्छ की श्रमणियाँ विक्रम की तेरहवीं से सोलहवीं सदी तक के काल की ही प्राप्त होती है। उसके पश्चात् यह परम्परा अन्य गच्छों में विलीन हो गई, आज इस गच्छ का प्रतिनिधि त्व करने वाली एक भी श्रमणी या श्रमण नहीं है। इसी प्रकार आगमिक गच्छ का सितारा भी तेरहवीं से सत्रहवीं सदी तक ही चमकता दिखाई देता है। तपागच्छ की ही एक शाखा पार्श्वचन्द्रगच्छ है, इसका उदय
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