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2. एक बार एक व्यक्ति की बूढ़ी माँ बीमार पड़ी। उसके एक बगीचा था, जिसकी वह
देख-रेख किया करती थी। वह बहुत सुन्दर था। वह अपने बगीचे के लिए बड़ी चिन्तित थी। उसकी यह हालत देखकर उसका लड़का बोला, माँ आपके बगीचे की देखरेख मैं अच्छी तरह किया करूँगा। तुम बेफ्रिक रहो, दूसरे दिन से वह एक-एक पत्ते की मिट्टी झाड़ने लगा, एक-एक फूल को कपड़े से पोंछने लगा । परन्तु पेड़ और पौधे मुरझाने लगे, पन्द्रह दिन में उसकी माँ की सारी बगिया उजड़ गई। पन्द्रह दिन बाद उसकी माँ बीमारी से ठीक होकर आई, उसने अपने लड़के से पूछा कि यह क्या हुआ? उसने कहा कि 'मैंने तो एक-एक फूल पर पानी छिड़का, एक-एक पौधे को गले लगाकर प्रेम किया, परन्तु फिर भी सब सूख गए। उसकी माँ हँसने लगी और कहा, कि फूलों के प्राण उनकी जड़ में होते हैं। जो दिखाई नहीं देते। पानी फूलों को नहीं देना पड़ता। जड़ों को देना पड़ता है। फिक्र पत्तों की नहीं, जड़ों की करनी पड़ती है। इसी प्रकार से हम लोग आचरण पर जोर देते हैं, परन्तु उसकी जड़ का पता नहीं है। यदि सम्यक्दर्शन रूपी जड़ को (श्रद्धा रूपी) पानी देंगे तो, आचरण रूपी फल पत्ते अपने आप लगते चले जायेंगे। अतः निरन्तर आत्मस्वभाव को प्राप्त करने की चेष्टा करो।
3. जैनधर्म की परमभक्त चेलना उदास थी बहुत समझाने पर भी राजा श्रेणिक को जैनधर्म पर श्रद्धा आती ही नहीं थी । परम जैन संत यशोधर मुनिराज जंगल में ध्यानस्थ थे, राजा श्रेणिक ने उन्हें द्वेष बुद्धि से देखा और 'यह तो दंभी है' - इस प्रकार मुनि के प्रति द्वेष से उनके गले में मृत सांप डाल दिया। राजभवन में आकर रानी चेलना को जब यह बात बतलाई । तब ये सुनते ही रानी चेलना का भक्तहृदय आकुल व्याकुल हो गया। उदास होकर तत्काल मुनिराज का उपसर्ग दूर करने के लिए वह तत्पर हुई। राजा श्रेणिक कहने लगे। अरे! तेरा गुरू तो कभी का सांप दूर करके अन्यत्र चला गया होगा। चेलना ने कहा, "नहीं राजन् - आत्मसाधना में लीन मेरे गुरु को वीतरागी जैन सन्तों को, शरीर का ऐसा ममत्व नहीं होता। वे जैसे के तैसे ही बैठे होंगे। अगर आपको प्रत्यक्ष देखना हो तो मेरे साथ चलिए। "
राजा श्रेणिक जब रानी चेलना के साथ वहाँ जाकर यशोधर मुनिराज को जैसे के तैसे ही समाधि में बैठे देखते हैं तो वे स्तब्ध रह जाते हैं-उनका द्वेष पिघल जाता है। हृदय गद्गद हो जाता है। रानी मुनिराज की भक्ति करते हुए सावधानी पूर्वक सांप को दूर करती है। तभी ध्यान पूर्ण होने पर मुनिराज राजा और रानी दोनों को धर्मवृद्धि का एक-सा आशीर्वाद देते हैं। मुनिराज की ऐसी महान् समता देखकर राजा श्रेणिक चकित हो जाते हैं। धन्य हैं ऐसे जैन मुनिराज, धन्य हैं ऐसा वीतरागी जैनधर्म । श्रेणिक ने बहुमान पूर्वक अपने अपराध की
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