Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 397
________________ स्वाध्याय का अर्थ-स्वाध्याय दो शब्दों से मिलकर बना है-स्व+अध्याय। स्व का अर्थ है निज तथा अध्याय का अर्थ अध्ययन या दर्शन होता है। इस प्रकार निज आत्मा का दर्शन स्वाध्याय है। यद्यपि देव दर्शन-पूजा व गुरु उपासना से भी यही कार्य सिद्ध होने के कारण वे दोनों कार्य भी स्वाध्याय कहे जा सकते हैं, किन्तु शास्त्रों का स्वाध्याय किये बिना विशेष ज्ञान की उपलब्धि संभव नहीं है। आगम (जिनवाणी) का स्वरूप-आगम, या जिनवाणी, या सच्चे शास्त्र का लक्षण बताते हुए आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं कि आप्तो पज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं, शास्त्रं कापथघट्टनम्॥ शास्त्र उसे कहते हैं जो सर्वज्ञ-वीतराग का कहा हुआ हो, खंडन रहित हो, प्रत्यक्ष और अनमान आदि प्रमाणों से विरोध रहित हो. यथार्थ सातों तत्त्वों या वस्त स्वरूप का उपदेश करने वाला हो, सब जीवों का हितकारक, मिथ्यात्व और कुमार्ग का खंडन करने वाला हो, वही सच्चा शास्त्र है। आगम तीन अक्षरों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ इस प्रकार है1. आ = जो आप्त (सर्वज्ञ, वीतरागी-हितोपदेशी) के द्वारा कहा गया। 2. ग - जो गणधरों द्वारा गूंथा गया हो तथा 3. म = जिसको मुनियों ने मनन किया हो, जीवन में उतारा हो। ऐसा आगम, या जिनवाणी या शास्त्र चार अनुयोगों में लिपिबद्ध है। चार अनुयोगों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है (1) प्रथमानुयोग-इसमें 63 श्लाका पुरुषों का वर्णन बहुत आकर्षक रूप से किया जाता है। यह एक अलंकारिक अनुयोग है, जिसको पढ़ने से भटके हुए सांसारिक जीव महान् पुरुषों का जीवन चरित्र पढ़ने से संसार से विरक्त हो जाते हैं और धर्मध्यान में लगने का प्रयत्न करते हैं। इस अनुयोग के माध्यम से पौराणिक महापुरुषों के समूल जीवन चरित्र का ज्ञान होता है। (2) करणानुयोग-इस अनुयोग में तीन लोक, गुणस्थान, मार्गणाओं, बीस प्ररूपणाओं आदि का वर्णन मिलता है। इस अनुयोग से सम्बन्धित शास्त्रों को पढ़ने से यह शिक्षा मिलती है कि हमें कैसे भाव करने से कैसा फल मिलेगा है। परिणामों की विचित्रता का ज्ञान हमें इन्हीं शास्त्रों के स्वाध्याय करने से होता है। 374

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