Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 434
________________ दु:खी, दरिद्री, लंगड़ा, अंधा, बधिर, काना, कोढ़ी, उन्मत्त (पागल), मकान रहित, परिवार रहित, बीमार, अतिवृद्ध, पशु-पक्षी आदि समस्त जीवों पर दया करना दानियों का परमकर्तव्य है। औषधालय, भोजनशाला, विद्यालय, अनाथालय आदि खुलवाना इसके अन्तर्गत आ जाते हैं। पात्रदत्ति-आचार्य जिनसेन के अनुसार महातपस्वी मुनियों के लिए सत्कारपूर्वक पड़गाह कर जो आहार आदि दान दिया जाता है, उसे पात्रदत्ति कहते हैं। यह भक्तिदान कहलाता है। पात्र के प्रकार सुपात्र कुपात्र अपात्र उत्तम पात्र मध्यम पात्र जघन्य पात्र उत्तम मध्यम जघन्य उत्तम मध्यम जघन्य तीर्थकर ऐलक क्षायिक द्रव्यलिङ्गि द्रव्यलिङ्गि अग्रहीत परिग्रहधारी भाव गृहीत व गणधर क्षुल्लक सम्यग्दृष्टि मुनि अणुव्रती मिथ्यादृष्टि मुनि चरितसे हीन अगृहीत को भावलिडि मुनि प्रतिमाधारी मध्यम मानने वाला उपशम सम्यः क्षयोपशम अ. सुपात्र सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शन सहित मुनि को उत्तमपात्र-सम्यग्दर्शन सहित अणुव्रती श्रावक को मध्यम पात्र और अव्रती सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहते हैं। उत्तम सुपात्र का स्वरूप-जो षट् जीवों की रक्षा करता हो, परोपकार में तत्पर रहता हो, हितमित वचन बोलता हो. परधन को निर्माल्य की तरह मानता हो, दाँत साफ करने के लिए तिनका तक नहीं उठाता हो, पशु, मनुष्य, देव, और अचेतन के भेद से 18000 शील के भेदों को पालता हो, प्रासुक मार्ग से चलकर चार हाथ भूमि देखकर जीवों की रक्षा करते हुए गमन करता हो, 46 दोषों को टालकर नवकोटि से विशुद्ध आहार करता हो, सरस तथा विरस आहार में समान बुद्धि रखता हो, किसी को बाधा न पहुँचाते हुए प्रासुक तथा गुप्त स्थान में मल-मूत्र करता हो, चित्त को वश में रखता हो, कर्मों के क्षय के लिए कायोत्सर्ग करता हो, कृत्य और अकृत्य को जानता हो अर्थात् कुल मिलाकर मुनिधर्म के 28 मूलगुण को यथायोग्य पालता हो, वह ही सुपात्र कहलाता है। 415

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