Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 451
________________ ठिठक जाती है। वे अपने रथ से नीचे उतरते हैं और धीरे-धीरे कुछ दूर चलते हैं। अचानक उनकी दृष्टि एक ध्यानमग्न मुनिराज पर पड़ती है और वे उसे अपलक देखते ही रहते हैं। नाना प्रकार के विचार में दौड़ने लगते हैं। इतने में उदयसुन्दर भी वहाँ आ जाते हैं। उदयसुन्दर हँसी करते हुए मुस्कुराकर कहते हैं कि-" आप इन मुनिराज को बड़ी देर से ऐसे देख रहे हैं जैसे इन्हीं जैसा बनने जा रहे हैं। बज्रबाहु कहते है कि - "तुम्हारा क्या इरादा है?" "मेरा क्या इरादा जो तुम्हारा, वही मेरा इरादा है। यदि तुम मुनिराज के शिष्य बन गये तो मैं आपका साथी शिष्य बन जाऊँगा।" उदयसुन्दर यह कहकर हँसने लगता है। क्योंकि वह जानता था अपने जीजा बज्रबाहु की राग-आसक्ति की पराकाष्ठा को जिसकी शादी हुए अभी दो ही दिन हुए थे, जो अपनी पत्नी को दो दिन के लिए भी उसके पिता के घर नहीं भेज सका, स्वयं साथ चला आया, वह क्या दीक्षा लेगा? वज्रबाहु विचार करने लगता है कि मनुष्य जन्म का पूर्ण फल इन मुनिराज ने प्राप्त कर लिया है, और मैं कर्म पाश में वैसे ही आवेष्टित हूँ जैसे भुजंग चन्दन तरु से लिपटे रहते हैं। ये जितने मुक्त है, मैं उतना ही जकड़ा हूँ। क्यों है इतना अन्तर? मुझ पापी को धिक्कार हो जो भोगरूपी पर्वत की विशाल गोल चट्टान पर बैठकर सो रहा है । छोड़ दे मनोदया को तोड़ दे दो दिन पूर्व बँधे इस विवाह सूत्र को । ठहर जा सदा-सदा के लिए इन मुनिराज के पतित पावन चरणों में। वज्रबाहु के भीतर राग-विराग का अन्तर्द्वन्द्व प्रारम्भ हो जाता है। कहता है, "उदयसुन्दर ! तुम भी इस दिव्य रूप से अलंकृत होकर शिव श्री के स्वामी होओ।" यह कहते हुए बज्रकुमार अपने विवाह के आभूषण, कंगन तोड़ देता है, उतार देता है, और पर्वत पर चढ़ जाता है जहाँ मुनिराज विराजे थे। उदयकुमार जो अब तक इसे हँसी-मजाक समझ रहा था, चकित रह जाता है। कहता है - "मुझे क्षमा करो, मुझ पर प्रसन्न होओ, मैंने तो आपसे परिहास किया था, आपने सच समझ लिया । " वज्रबाहु कहता है- 'हे मित्र ! आप तो मेरे उपकारक हैं। मैं तो विषय कूप में गिर रहा था। आपने मुझे निकाल लिया। हे सुन्दर! विकल्प, चिन्ता और खेद छोड़ो, तेरी हँसी मेरे लिए अमृत बन गई। क्या हँसी में पी गयी औषधि रोग को नष्ट नहीं करती? उदयसुन्दर निरुत्तर हो जाता है। बज्रबाहु मुनिराज के निकट दीक्षित हो पद्मासन में बैठ जाता है। उदयसुन्दर देखता है राग पर विरागता ने विजय पा ली, अब उन्हें समझाना व्यर्थ है। तब वह भी कहता है कि- 'हे पूज्य ! मैं भी आपका अनुगामी बनता हूँ और अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करता हूँ। इतना कहकर उदयसुन्दर भी मुनिराज से दीक्षित हो जाता है। यह देख 26 राजकुमार मित्र जो साथ में आये थे वे भी सब दीक्षित हो मुनिराज बन जाते हैं। भाई और पति को विरक्त देख 432

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