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मनोदया भी आर्यिका दीक्षा धारण कर लेती है। ये सब आगे जाकर स्वर्ग आदि के भोग भोगते हुए मनुष्यगति पा मुक्त हो जाते हैं।
उपर्युक्त दृष्टान्त से यह बात सिद्ध हो जाती है कि राग से वैराग्य और वैराग्य से मुक्ति का कारण हँसी-मजाक भी बन सकता है।
राग में फँसे अनादिकाल से इस जीव को निकालने में सद्गुरु और सद्शास्त्र उत्तोमोत्तम निमित्त बनते हैं। जैसा साहित्य पढ़ा जाता है उसका प्रभाव अवश्य मस्तिष्क और आचरण पर पड़ता है। सुख की चाह में तो सभी आज तक जी रहे हैं। यदि गहराई से सोचा जाये तो सभी मनुष्य उस अलौकिक आनन्द को पाने के लिए जन्म लेते हैं किन्तु कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु के चक्कर में पड़कर संसार बन्धन से मुक्त नहीं हो पाते।
भगवान बनने आये थे, संसारी बन गये, पापों को खोने आये थे, पर पुण्य में खो गये । समझ में नहीं आता, यह पाप-पुण्य का खेल, खेल देखते-देखते, स्वयं खिलाड़ी बन गये ||
उलझे हुए को और उलझाना धर्म नहीं है, न्याय नहीं है। अनादिकाल से जो भ्रम में पड़ा हुआ है, उसे और भ्रमित करना कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। पं. बनारसीदास जी कहते हैं कि
राग उदै जग अंध भयौ, सहजै सब लोगन लाज गँवाई । सीख बिना नर सीख रहे, विसनादिक सेवन की सुधराई || ता पर और रचैं रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई । अंध असूझन की अँखियन में, झोंकत है रज रामदुहाई ||
राग भाव के उदय से यह दुनिया वैसे ही अंधी हो रही है कि सब लोग अपनी सभी मान-मर्यादा खोये बैठे हैं। व्यक्ति बिना सिखाये ही व्यसनादि सेवन में कुशलता प्राप्त कर रहे हैं।
इतने पर भी जो कुकवि, कुशास्त्रकार उन्हीं व्यसनादि के पोषण करने वाले काव्यों की रचना करते हैं, उनकी निष्ठुरता का क्या कहना है? वे बड़े निर्दयी हैं। भगवान की सौगन्ध, वे कुकवि शास्त्र रचने वाले जिन्हें कुछ नहीं दिखता, उन अंधों की आँखों में धूल झोंक रहे हैं। इस प्रकार गिरते को गिराना और मरते को मारना कहाँ तक उचित है? अर्थात् सर्वथा अनुचित है।
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