Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 432
________________ उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि जिसके द्वारा दु:ख रूप संसार छूट जावे वह तप है। वह तप निर्मल अनन्त सुख का प्रधान कारण है, और दु:ख रूप अग्नि के लिए मेघ के समान है। तप का मुख्य उद्देश्य मोह रूप अन्धकार को दूर करके दुःखान्त संसार का उच्छेद् करना है। इच्छाओं को नष्ट करके, मोह को मिटाकर, छोड़कर किया गया तप इस जीव को संसार से पार उतारने में सक्षम है। मोह का त्याग होने के पश्चात् राग को घटाने हेतु संयम धारण किया जाता है, तप तपा जाता है। यह संयम तप मुनियों को सर्वदेश होता है किन्तु गृहस्थों का एकदेश होता है। किन्तु लक्ष्य एक ही रहता है। जो जीव अभिलाषाएं छोडकर तपस्या करता है उसको इस लोक में व परलोक में भी सख की प्राप्ति होती है। अभिलाषा एवं परिग्रह ये सब मोह जन्य हैं। तप यद्यपि कुछ भयावह प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है, यदि अन्तरङ्ग वीतरागता व साम्यता की रक्षा व वृद्धि के लिए किया जाये तो तप एक महान् धर्म सिद्ध होता है। क्योंकि वह दु:खदायक न होकर आनन्ददायक होता है। इसलिए ज्ञानी शक्ति अनुसार तप करने की नित्य भावना भाते हैं और प्रमाद नहीं करते। तप द्वारा अनादि के बँधे कर्म व संस्कार क्षण भर में विनष्ट हो जाते हैं। सम्यक् तप अर्थात् सम्यग्दर्शनपूर्वक किया गया तप का मोक्षमार्ग में बहुत बड़ा महत्त्व है। इसी कारण गुरुजन शिष्यों के दोष दूर करने के लिए कदाचित् प्रायश्चित रूप में भी उन्हें तप करने का आदेश देते हैं। तप ही एक ऐसा उपाय है जिसके द्वारा क्रोध, मान आदि कषाओं और पंचेन्द्रिय विषयों को आसानी से जीता जा सकता है। वस्तुतः तप के अभाव में जीवन अधूरा है। जीवन को परिपूर्ण रूप से परिपक्व बनाने वाला मात्र 'तप' ही है। सम्यक्तप अर्थात् सम्यकदर्शन पूर्वक तप करना प्रत्येक श्रावक का प्रतिदिन का कर्तव्य होना चाहिए। उसे अपने षट् आवश्यकों को पूर्ण करने के लिए जीवन को तपमय बनाना होगा। यह मनुष्य पर्याय बहुत दुर्लभता से प्राप्त हुई है, इसे यूँ ही नहीं गँवाना चाहिए। इसीलिए किसी ने कहा है कि काय पाय कर तप नहीं कीना, आगम पढ़ नहीं मिटी कषाय। धन को पाय दान नहीं दीना, काहे जगत् में आये। चार बात यह मिलनी कठिन हैं, शास्त्र, ज्ञान, धन, नर पर्याय॥ छठवाँ आवश्यक : दान दान का अर्थ है देना। इस लोक में जड़ व चेतन सब ही पदार्थ एक-दूसरे को कुछ न कुछ दे रहे हैं। एक वन में बैठा हुआ साधु शान्ति दे रहा है, एक जंगल में बैठा डाकू भय दे रहा है। एक झाँसी की रानी व सुभाष चन्द बोस का चित्र तुम्हें साहस-हिम्मत दे रहे हैं, वीतराग भगवान की मर्ति वीतरागता दे रही है। वेश्या का चित्र वासना देता है तो साध्वी का चित्र सा ना। इस प्रकार सभी इस संसार में कुछ न कुछ किसी को दे रहे हैं। यह स्वतः दान की क्रिया अनादिकाल से चली आ रही है। इसके साथ ही कुछ क्रियाएं पुरुषार्थपूर्वक भी की जाती हैं। 413

Loading...

Page Navigation
1 ... 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458