Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 441
________________ बिन माँगे दे दूध बराबर, माँगे दे सौ पानी। वह देना है खून बराबर, जाये खींचातानी॥ भावानुरूप दान का फल एक नगरी के अन्दर एक लड़का व्यापार करने जाया करता था। उसकी माता प्रायः उसे लड्डू बनाकर दिया करती थी। वह लड्डू घर से शुद्ध बनवाकर ले जाया करता था। एक दिन जब जंगल से गुजर रहा था, तब वह एक ऋद्धिधारी मुनि के दर्शन करता है। उनको देखकर लड़के के भाव बनते हैं कि आज मुझे मुनिराज को आहार कराना चाहिए। वह नवधाभक्तिपूर्वक मुनिराज को पड़गाह लेता है। मुनिराज आहार में एक लड्डू छोड़ सब लड्डू का आहार कर लेते हैं। ऋद्धि के बल से उस लड्डू में विशेष स्वाद आ जाता है। इस एक लड्डू के खाते ही, वह अपने भावों को बिगाड़ लेता है, सोचता है, आज माँ ने लड्डू बहुत बढ़िया एवं स्वादिष्ट बनाये थे। आज ही सभी लड्डू महाराज को खिला दिये। शोक करने लगता है और तभी आयु का क्षय हो जाता है और वह यह सोचता हुआ मरण को प्राप्त हो जाता है। तत्पश्चात् यह जीव एक साहूकार के यहाँ जन्म लेता है। पैदा होते के साथ ही यह जीव बीमार रहने लगता है। सेठ की तिजोरी में धन भरा हुआ है, लेकिन यह लड़का इसे भोग नहीं सकता और पलंग पर पड़ा रहता है। बीमारी की अवस्था में ही लड़का बड़ा हो जाता है। कुछ समय बाद नगर में एक मुनिराज आते हैं। वह लड़का उनसे पूछता है कि-"हे गुरुदेव! धन मेरे पास बहत है. लेकिन उसे मैं भोग क्यों नहीं सकता, इसका क्या कारण है?" मुनिराज कहते हैं कि-"तुम्हारे पास धन सम्पत्ति भरपूर है इस भाव से तुमने दान दिया है लेकिन दान देने के बाद तुमने अपने भाव अशुद्ध किए इस कारण से वह सम्पत्ति तुम भोग नहीं पा रहे हो।" इस प्रकार भावों की शुद्धि का आहार दान पर बहुत प्रभाव पड़ता है। चार प्रकार के दातार-संसार भर में मनुष्यों की प्रवृति दान देने के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न पायी जाती है। निम्न चार प्रकार के मनुष्यों के रूप में हैं 1. मक्खीचूस मनुष्य-जो न स्वयं खाये और न दूसरों को खाने दे। 2. कंजूस मनुष्य-जो स्वयं खाते हैं, परन्तु दूसरों को नहीं देते। 3. उदारचित्त मनुष्य-जो स्वयं भी खाते हैं, औरों को भी देते हैं। 4. दातार मनुष्य-जो स्वयं न खाने की अपेक्षा, औरों को देते हैं। 422

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