Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 445
________________ द्वादश अध्याय : राग से वैराग्य, वैराग्य से मुक्ति आज का विषय है-'राग से वैराग्य, वैराग्य से मुक्ति' सभी श्रोतागण मन को एकाग्रचित्त करके सुनें। यह संसार एक विचित्र बगीचा है। प्रत्येक प्राणी ने जिसे अपने कर्मों से सींचा है। पाते हैं शुभ कर्म वाले ही फूलों की महक। सदा अशुभ कर्मों वालों को शूलों ने खींचा है। जब से मिला है मुझे वीतराग धन। लहरा कर खिल उठा है दिल का मेरा चमन॥ पुलकित हो उठा मेरा प्रत्येक अंग-अंग। भस्म हो गया है कर्म रूपी वन।। अनादिकाल से यह जीव आज तक अपनी सत्ता रूप में चला आ रहा है। सुख की चाह में संसार भ्रमण करता रहा है। सच्चे सुख का, स्थायी सुख का यदि वह उपाय करता तो वर्तमान में उसकी यह स्थिति क्यों बनती, जहाँ सुख का लेशमात्र भी सद्भाव नहीं है, वही क्षेत्र इसने अपनी शान्ति को प्राप्त करने के लिए चुना, इसलिए परिणाम आज सामने हैं। 'पर' को अपना मानता रहा, 'स्व' की ओर, अपने स्वयं आत्मा की ओर कभी देखा ही नहीं। यदि क्षण मात्र भी विचार किया होता कि "मैं" मैं हूँ", मैं ही पूर्ण हूँ, और 'पर' में मेरा लेशमात्र भी कुछ है ही नहीं, तो भी आज वह मुक्त हो गया होता, संसार के दुःखों से छूट गया होता। 'पर' से कभी राग करता तो कभी द्वेष, इस प्रकार मोहित हो अपना काल व्यतीत करता हुआ इसने आज तक कौन से दु:ख नहीं भोगे, और कौन से सुख नहीं भोगे? सुख क्या है वे सुखाभास हैं यदि वे सुख होते तो चिरस्थाई होते। वह सुख ही क्या जो स्थाई न हो। ___ लोग कहते हैं कि नरकों में अतिशय दुःख है, वहां के समान दु:ख और कहीं हैं ही नहीं। परन्तु यह तो परोक्ष बात हुई, पर के आश्रय की बात हुई। द्वेष प्रत्यक्ष ही दुःख का कारण है। स्वर्गों में सुख की कल्पना करते हैं, परन्तु वर्तमान में यदि राग की मन्दता हो तो सुख का अनुभव होने लगता है। हम सभी दुःखी हो रहे हैं। केवल कभी राग करने से तो कभी द्वेष करने से। हमें वस्तुओं से राग-द्वेष को समूल नष्ट करना होगा। अपने दुःखों को नष्ट करने के लिए उनके कारण को जानना होगा। उनका मूलोच्छेदन करना होगा। स्व-पर के भेद को समझना होगा। 426

Loading...

Page Navigation
1 ... 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458