Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 448
________________ आभूषण पहनाने की क्या आवश्यकता है? परन्तु मोही जीव क्या करे? मोह में तो मोह की उत्पन्न ही बातें होती हैं। उसमें ऐसा ही होता है। वास्तव में देखा जाए तो सम्पूर्ण जगत का चक्र केवल एक मोह के कारण ही घूम रहा है, यदि मोह क्षीण हो जाये तो संसार का भी अन्त हो जाये । आत्मा के मुख्य तीन ही परिणाम होते हैं (1) शुभ परिणाम (2) अशुभ परिणाम और (3) शुद्ध परिणाम । शुभ और अशुभ परिणाम संसार के कारण हैं, जबकि शुद्ध परिणाम मोक्ष का कारण है। मोक्षमार्ग शुभ और अशुभ परिणामों का एक समान स्थान है, क्योंकि दोनों बन्ध के कारण हैं, और बन्ध संसार का कारण है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं किलिंबंधदि कालायसंपि जह पुरिसं । सोवण बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥ जैसे स्वर्ण की और लोहे की बेड़ी बिना किसी भी अन्तर के पुरुष को बाँधती है, क्योंकि बन्धन भाव की अपेक्षा से इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, इसी प्रकार शुभ और अशुभ कर्म में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि ये दोनों इस जीव को संसार में रोके रखते हैं। यह जानकर जीव को अपना भ्रम दूर करना होगा कि इस संसार में कोई भी पदार्थ अच्छा या बुरा नहीं है, अतः कर्म भी अच्छे या बुरे नहीं हैं अपितु उस जीव की परिणति भाव अच्छे या बुरे होते हैं, उसी के अनुसार उसे वस्तुएँ इष्ट-अनिष्ट दिखती हैं। हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसोत्ति पुण्णपावाणं । हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसं छण्णो ॥ जो व्यक्ति 'पुण्य और पाप में कोई अन्तर नहीं है ऐसा नहीं मानता है, अर्थात् उन्हें समान रूप से हेय नहीं मानता है। वह मोह से आच्छन्न प्राणी है और वह अपार घोर संसार में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करता रहेगा। इस प्रकार बन्ध तत्त्व को जानकर उसके आगे बन्ध न हो, ऐसा उपाय करना चाहिए वास्तव में पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं है। अनादि काल से जीव अपनी कल्पना से ही इस संसार में वस्तुओं को अच्छा या बुरा मानता आया है। यह उसकी सबसे बड़ी भूल है कि वह आज तक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सका। आचार्य योगीन्दुदेव कहते हैं कि इष्टोऽपि मोहतोऽनिष्टो भावोऽनिष्टस्तथा परः । न द्रव्यं तत्त्वतः किंचिदिष्टानिष्टं हि विद्यते ॥३६॥ 429 ( योगसार अ. 5)

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