Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 436
________________ 4. अन्वयदत्ति या सकलदत्ति-महापुराण के श्लोक 40 41 में आचार्य जिनसेन ने लिखा है कि अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को कुल तथा धन के साथ अपना कुटुम्ब समर्पण करने को अन्वयदत्ति या सकलदत्ति कहते हैं। अगर चाहते हो धन की रक्षा, धनवानो बनो दानी। कुएँ से जल नहीं निकलेगा, सड़ जायेगा सब पानी || प्रत्येक सद्गृहस्थ को दान करना उसका कर्तव्य है। ये चार प्रकार के दान पात्रों की अपेक्षा से बताये गये हैं। सद्गृहस्थ वस्तु की अपेक्षा क्या दान करें, इस अपेक्षा से दानों को चार भागों में विभक्त किया गया है। आचार्य समन्तभद्र ने बताया है कि आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन । वैयावृत्यं बुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः ॥ - रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 117 आहारदान, औषधदान, अभयदान और ज्ञानदान ये चार वैयावृत्य के प्रकार हैं, गृहस्थ को ये चार दान करना चाहिए। इनका विशेष वर्णन निम्न प्रकार है 1. आहार दान- उत्तम योग्य पात्रों को आहार देकर उनकी क्षुधा को शान्त करना, आहार दान है। अन्य गरीबों को, पशु-पक्षियों को भोजन देना, दयादत्ति के अन्तर्गत आहार दान है। 2. औषधदान-मुनि- आर्यिका श्रावक-श्राविकाओं को शुद्ध औषधि दान करना, औषध दान है । औषधालय खुलवाना, रोगियों की सेवा करना, उन्हें स्वस्थ करने के साधन जुटाना, दयादत्ति दान के अन्तर्गत आ जाता है। यह दान करने से निरोग शरीर प्राप्त होता है। 3. अभयदान - पात्रों के लिए वसतिका आदि बनवाना, जिन कारणों से अन्य पुरुषों का भय दूर हो, उन कारणों का योग करना, दूसरों को भयभीत नहीं करना, चाहे वे मनुष्य हो या पशु-पक्षी, एक इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की रक्षा करना, अभयदाय (दयादत्ति) के अन्तर्गत आ जाता है। 4. ज्ञानदान - पात्रों को शास्त्र देना, शास्त्रों का प्रकाशन करवाना आदि पात्रज्ञानदान कहलाता है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार से अन्य पुरुषों की बुद्धि, विद्या एवं ज्ञान की वृद्धि हो उस प्रकार के कार्य करना, इनसे सम्बन्धित साधन जुटाना, विद्या अध्ययन करवाना पाठशालाएँ खुलवाना, विद्यालय खुलवाना, बच्चों को बड़ों को पुस्तकें देना, उच्चशिक्षा के लिए सुविधाएँ जुटाना आदि दयादत्ति के अन्तर्गत ज्ञानदान कहलाता है। 417

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