Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 437
________________ उपर्युक्त चारों प्रकार के दान गृहस्थों को अवश्य करने चाहिए, ये उनका कर्तव्य है कि वे अपने दान आवश्यक को पालते हुए प्रतिदिन कुछ न कुछ किसी भी रूप में दान करें। इसको स्पष्ट करते हुए पं. द्यानतराय जी ने दशलक्षण धर्म पूजन में लिखा है कि दान चार परकार, चार संघ को दीजिए। धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिए। उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय अहारा। निहचै राग-द्वेष निरवारै, ज्ञाता दोनों दान संभारै। दोनों संभारै कूप-जलसम, दरव घर में परिनया।। निज हाथ दीजे साथ लीजे खाय खोया बह गया। धनि साध शास्त्र अभय-दिवैया. त्याग राग विरोध को। बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहै नाहीं बोध को।। गृहस्थधर्म में दान की प्रधानता की दृष्टि से उसको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है1. अलौकिक दान-यह दान साधुओं को दिया जाता है जो परम्परा से मोक्ष का कारण है। 2. लौकिक दान-यह दान दयादत्ति, समदत्ति की बुद्धि से लौकिक व्यक्तियों एवं तिर्यचों को दिया जाता है। यह लौकिक सुख-सुविधाओं की वृद्धि का कारण है। यह पुण्य के बन्ध का कारण है। आहार दान में शुद्धि-पात्रों को जो भक्तिपूर्वक आहार दान दिया जाता है वह अलौकिक दान कहलाता है। आहार दान देते समय निम्न चार प्रकार की शुद्धियां रखना आवश्यक हैं1. द्रव्य शुद्धि 2. क्षेत्र शुद्धि 3. काल शुद्धि और 4. भाव शुद्धि। द्रव्य शुद्धि-साधु, व्रतियों की आहार चर्या को निर्दोष सम्पन्न कराने के लिए द्रव्य शुद्धि का सर्वाधिक महत्त्व है क्योंकि सभी प्रकार के द्रव्यों को शुद्ध करना आहारदाता के ज्ञान और विवेक पर निर्भर करता है। इसलिए द्रव्यशुद्धि में निम्न द्रव्यों की शुद्धि पर ध्यान देना आवश्यक है1. सभी खाद्य पदार्थों को प्रासुक जल से धोकर बनाना चाहिए। 418

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