Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 429
________________ इधर सेठ सुदर्शन संसार-शरीर-भोगों से विरक्त हो अपने पुत्र सुकान्त को सारा गृहभार सौंपकर विमलवाहन मुनिराज से दीक्षित हो जाते हैं और निरतिचार 28 मूलगुणों का पालन करते हुए आत्मध्यान करने लगते हैं। अब एक बार सुदर्शन महाराज पटना नगर के उद्यान से आहार के लिए नगर को निकलते हैं। तब वह रानी की धाय उन्हें देखकर देवदत्ता वेश्या को बताती है। देवदत्ता मायाचारी से श्राविका का रूप बनाकर मुनिराज सुदर्शन को पड़गाह लेती है। अन्दर ले जाकर वह मुनिराज के शरीर से कई कुचेष्टाएँ करती है किन्तु मुनिराज अपने शीलव्रत में दृढ़ रहते हैं। जब उसका मन्तव्य सिद्ध नहीं होता तब वह मुनिराज को मर्मछेदी वचन कहने लगती है। मुनिराज शान्त रहते हैं। तब वह मुनिराज के चरणों में गिर जाती है और क्षमा माँगने लगती है। मुनिराज क्षमा कर देते हैं। धर्म का उपदेश और आशीर्वाद देते हैं। अन्त में सुदर्शन महाराज वापस लौट जाते हैं और ध्यान मग्न हो जाते हैं। अपने चारों घातियाँ कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं और अन्ततः मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस दृष्टान्त से यह सिद्ध हो जाता है कि जो सदगृहस्थ अपने षद आवश्यकों को पालता हुआ तप करता है वह भविष्य में मुनिधर्म स्वीकार कर अन्त में मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। इसीलिए सभी श्रावकों को यह तप प्रतिदिन आवश्यक रूप से तपना चाहिए। मन की तपन न मिटा सकेंगे वासना के ये ईंधन। वासना के त्याग से ही मिलेगा जीवन धन॥ होंगे वे कितने सुखद क्षण कर पायें यदि। एक आत्मा की सकल सत्ता को सफल समर्पण।। राजा श्रेणिक के पुत्र वारिषेण भी गृहस्थ में रहते हुए सम्यक्दर्शनपूर्वक षट् आवश्यकों का यथायोग्य पालन करते थे और अष्टमी-चतुर्दशी को आत्मध्यान करते थे; अन्त में मुनिधर्म अंगीकार करते हुए उत्कृष्ट आत्मध्यान कर अपने समस्त कर्मों का क्षय कर मोक्ष को प्राप्त हुए। यह आदर्श प्रत्येक श्रावक को अपने जीवन में प्राप्त करना चाहिए। तप का महत्त्व-निर्दोष तप से सब कुछ प्राप्त हो जाता है। जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि तृण को जलाती है, वैसे तपरूप अग्नि कर्म रूपी तृण को जलाती है। उत्तम रूप से किया गया कर्मास्रव रहित तप के फल का वर्णन करने में हजार देवों की जिह्वा भी समर्थ नहीं है, ऐसा तप का महत्त्व है। ___तप से सभी अर्थों की सिद्धि होती है। इससे ऋद्धियों की प्राप्ति होती है। तपस्वियों के चरण से पवित्र स्थान भी तीर्थ बन जाते हैं। कहा है जिसके तप नहीं वह तिनके से भी लघु है; उसे सब गुण छोड़ देते हैं, वह संसार से मुक्त नहीं होता है। 410 =

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