Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 422
________________ मानव का तप से ही यह सुन्दर रूप-रंग खिलता है। उसमें चमक और आत्मिक तेज प्रकाशित होता है। संसार रूपी कीचड़ में रहकर भी उसका मुख कीचड़ से ऊपर उठा रहता है। वह आत्मज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश की ओर उन्मुख रहता है। तप रूपी सूर्य के प्रखर ताप से तपकर ही वह उज्ज्वल कीर्ति प्रकट करता है। इस प्रकार वह इस संसार कीचड़ से ऊपर उठता हुआ, इस संसार के पापों से लिप्त नहीं होता। संसार पंक में रहता हुआ भी संसार में लिप्त नहीं होता ऊपर उठा रहता है, कमल की भाँति। कर्मरूपी मल से मुक्ति प्राप्त करने के लिए तप करना अनिवार्य है। ऐसे तप करने वाले को ही तापसी कहा जाता है। अपनी इच्छा से वह तपता है, कष्टों को प्रसन्नतापूर्वक सहता है। किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं करता। समस्त तपों के कष्टों को हृदय में संजोए उनसे अप्रभावित रहता हुआ शान्त और निश्चल बन जाता है। मानव जीवन एक शुद्ध, स्वच्छ दर्पण के समान होता है। समय-समय पर, इस पर शुभाशुभ कर्मो की धूलि की परतें जमती रहती हैं, ये पर्ते तप की बुहारी द्वारा ही हटती हैं और तप रूपी बुहारी, आत्मा को स्वच्छ बनाने में परम् सहायक सिद्ध होती है। जो मानव आत्मारूपी दर्पण पर कर्म रूपी धूलि के कणों को जमने देते हैं, और तपरूपी बुहारी से साफ नहीं करते हैं, उनका आत्मरूपी दर्पण, दर्पण नहीं रह जाता, उनकी आत्मा, आत्मा नहीं रह जाती। उस आत्मा रूपी दर्पण पर परमात्मा का स्व-आत्मा का बिम्ब, बिंबित नहीं हो सकता। अतः आत्मा रूपी दर्पण को स्वच्छ रखने के लिए तप करना होगा। इच्छाओं का दमन करना होगा और तपस्वी बनकर आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना होगा और फिर आत्मा में ही रहना होगा। क्योंकि शरीर सतह है, गहराई तो आत्मा में होती है। जो सतह पर ही जीता हो, गहराई का आनन्द वह क्या जाने? निधि तो गहराई में ही होती है, इसलिए वह तपस्वी नहीं रह जाता, अपनी आत्मा में समा जाता है, वह सदा के लिए आत्मा को हो अपना निवास बना लेता है। तप का अर्थ आचार्य जयसेन प्रवचनसार-तात्पर्यवृत्ति में लिखते हैं कि समस्तरागादिपरभावेच्छात्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः॥७९॥ समस्त रागादि पर भावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्व-स्वरूप में प्रतपन अर्थात् आत्मतेज या आत्मशक्ति की जागृति करना, विजयन करना तप है। दूसरे शब्दों में समस्त रागादि भावों के त्यागपूर्वक आत्मस्वरूप में, अपने में लीन होना अर्थात् आत्मलीनता द्वारा विकारों पर विजय प्राप्त करना तप है। यह निश्चय तप कहलाता है। कहा गया है कि 'इच्छा निरोधो तपः। आचार्य कुमार कार्तिकेय कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखते हैं इह पर लोय सहाणं णिरवेक्खो जो करेदि सम भावो। विविहं काय-किलेसं तवधम्मो णिम्मलो तस्य।।४००॥ - - - - 403) -

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