Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 408
________________ 6. छना जल का प्रयोग करना। 7. देवदर्शन करना (पंचपरमेष्ठी की भक्ति करना)। 8. जीवों पर दया करना। यह बात पं. आशाधर जी इस प्रकार कहते हैं मद्यपलमधुनिशासनपञ्चफलविरतिं पञ्चकाप्तनुती। जीवदयाजलगालनमिति च क्वचिदष्ट मूलगुणाः।। अर्थात् मद्य का त्याग, माँस का त्याग, मधु का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग पाँच उदुम्बर फलों का त्याग, त्रिकालदेव वन्दना, जीव दया और छने पानी का उपयोग ये आठ मूलगुण शास्त्र में कहे हैं। ___ इन अष्ट मूलगुणों में एक पाक्षिक श्रावक के योग्य सभी आवश्यक आचार (संयम) आ जाता है, जिसे श्रावक सरलता से पाल सकता है। यह श्रावक निम्न सात व्यसनों का भी पहले से ही त्यागी होता है सात व्यसन1. जुआ खेलना-हार-जीत पर जो कार्य निर्धारित हो वह द्यूत क्रीड़ा कहलाती है। 2. नशा करना-मद्य, गाँजा, चरस, अफीम, गुटका हेरोइन, तम्बाकू आदि नशीले पदार्थों __ का सेवन, नशा करना कहलाता है। 3. माँस सेवन करना-जीवों का कलेवर (मृत शरीर) खाना, माँस सेवन करना है। 4. वेश्या गमन-व्यभिचारिणी स्त्री के घर आना-जाना, उससे काम सेवन करना वेश्या गमन है। 5. शिकार खेलना-पशुओं को मारना, उनके प्राणों को हरना, शिकार खेलना है। 6. चोरी करना-दूसरे की वस्तु को उसकी आज्ञा के बिना, उठाना चोरी करना है। 7. पर-स्त्री सेवन-दूसरे की स्त्री से काम सेवन करना, बुरी दृष्टि डलना, पर-स्त्री सेवन है। अष्ट मूलगुणधारी श्रावक के ये सात व्यसन नहीं हो सकते, क्योंकि पहले इनका ही त्याग होता है, फिर अष्ट मूलगुण धारण किये जाते हैं। संयम का मूल आधार हिंसा से बचना और अहिंसा को धारण करना है। पाक्षिक श्रावक न केवल स्थूल हिंसा से बचना चाहता है वरन् वह सूक्ष्म हिंसा भी नहीं करना चाहता। इसलिए वह रात्रि भोजन का त्यागी होता है और जल भी 3894

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