Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 401
________________ जिनचन्द्र, आ. कुन्दकुन्द, आ. उमास्वामी, आ. समन्तभद्र, आ. अमृतचन्द्र, आ. पूज्यपाद स्वामी आदि आचार्यों ने विभिन्न ग्रन्थों की रचना की है। ये ग्रथ ही आर्षग्रन्थ कहलाते हैं। इन ग्रन्थों के आधार पर की गयी टीकाएँ चाहे आचार्यों ने की हों या पंडितों ने सभी का स्वाध्याय करने योग्य है। ये ग्रन्थ चाहे कहीं से भी प्रकाशित हों सभी जिनवाणी कहलाते हैं। यह कभी भी पक्ष नहीं रखना चाहिए कि ये यहाँ से प्रकाशित ग्रन्थ हैं और ये वहाँ से प्रकाशित ग्रन्थ हैं, इसलिए ये ग्रन्थ तो पढ़ेंगे और वे ग्रन्थ नहीं पढ़ेंगे। ऐसा अपमान जिनवाणी का कभी भी नहीं करना चाहिए। यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि मूल आचार्य के ग्रन्थ में कही फेर बदल किया गया हो, गाथा या श्लोक में परिवर्तन किया गया हो एवं अर्थ का अनर्थ किया गया हो, तब वे ग्रन्थ पठनीय नहीं है। उपर्युक्त सभी प्रकार के ग्रन्थों का स्वाध्याय घरों में चटाई बिछाकर सामने चौकी रखकर करें। स्वाध्याय कहीं भी किया जा सकता है, घरों में, दुकान पर, मन्दिर में, जहाँ भी अच्छी सुविधा हो वहाँ स्वाध्याय करें। जिनवाणी का महत्त्व-हमारे जीवन में जिनवाणी का बहुत महत्त्व है। जिनवाणी मोक्षमार्ग में साक्षात् माता के समान है। जिस प्रकार माँ पाल-पोस कर पुत्र को सक्षम और सामर्थ्यवान बनाती है, उसी प्रकार जिनवाणी माँ हमें अनादि काल के अज्ञान रूपी अन्धकार से निकाल कर मोक्ष रूपी प्रकाश भवन में बैठा देती है। जिनवाणी माँ का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए। किसी ने कहा है जिनवाणी की विराधना से कोई गुणवान् नहीं होता। जिनशास्त्र को रौंदने से कोई पहलवान नहीं होता। सद्गुरुओं को दोष नहीं लगाओ, थोड़ा गहराई से सोचो। अनुचित बातें करने से कोई विद्वान् नहीं होता। प्रायः ऐसा देखने-सुनने को मिलता है कि अमुक पक्षपाती ने अमुक के ग्रन्थों को मन्दिर से हटा दिया या मन्दिर जी में रखने नहीं दिया। यह क्रिया श्रावक की उचित नहीं है। किसी ने इसलिए कहा है कि यदि शास्त्र नष्ट होने लगे तो शास्त्र का क्या होगा? यदि अन्दर की शर्म निकल गई तो बाहर की लाज से क्या होगा? धर्म प्रचार के स्वप्न को साकार करने वालो. धर्म रक्षक ही भक्षक बन गये तो धर्म का क्या होगा? 378 -

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