Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 400
________________ सामायिक काल में सूत्रग्रन्थों का और आर्षग्रंथों का अध्ययन नहीं करना चाहिए। 6. उपाधनाचार-इस ग्रन्थ के स्वाध्याय पर्यंत इस वस्तु का मैं त्याग करता हूँ, इस प्रकार अवग्रह करके पढ़ने पर वह उपधान या उपाधनाचार कहलाता है। दूसरे शब्दों में धारणा सहित आराधना करना स्मरण सहित स्वाध्याय करना-भूलना नहीं, उपाध नाचार है। 7. बहुमानाचार-ग्रंथों के वाचना आदि कार्य में गर्वहीन होते हुए जो आदर किया जाता है और गुरु तथा ग्रन्थ आदि की आसादना नहीं करना, बहुमान नाम का गुण है। दूसरे शब्दों में ज्ञान का, शास्त्र का, पढ़ने का, विशेष ज्ञानी का बहुत आदर करना, शास्त्र को ले जाते हुए, लाते हुए उठकर खड़ा होना, पीठ न दिखाना, आगम को उच्चासन पर विराजमान करना, पड़ते समय लौकिक बात नहीं करना, अशुद्ध वस्त्रों व शरीर की अवस्था होने पर शास्त्रों को नहीं छूना, बहुमानाचार के अन्तर्गत आता है। 8. अनिह्नवाचार-अपने कनिष्ठ-लघु या अप्रसिद्ध आदि गुरु का नाम छिपाकर अन्य महान् गुरु के नाम का कथन करने पर अथवा ग्रंथ के विषय में भी ऐसा करने पर निह्नव नाम का दोष और ऐसा न करने पर अनिह्नव नाम का गुण होता है अर्थात् किसी के द्वारा गुरु का नाम पूछे जाने पर 'अपने गुरु अल्प हैं तो उनके नाम से मेरी विशेषता नहीं होगी', ऐसा सोचकर अपने को किसी बड़े प्रसिद्ध गुरु का शिष्य बता देना या जिस ग्रंथ से ज्ञान प्राप्त किया है उसके अतिरिक्त बड़े ग्रंथ का नाम बता देना आदि निह्नव दोष है। ऐसा न करने से अनिहव गुण होता है। आर्षग्रन्थों का स्वाध्याय करें-गृहस्थों को आर्षग्रन्थों का ही स्वाध्याय करना चाहिए। आर्षग्रन्थ-महावीर स्वामी के मोक्ष जाने के उपरान्त सुधर्माचार्य जम्बूस्वामी आदि अनुबद्ध केवली हुए, फिर विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन, भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली 465 ई. पू. से लेकर 365 ई. पू. तक हुए। यहाँ तक सम्पूर्ण ज्ञान प्रवाह अनवरत चलता रहा। इसके उपरान्त आचार्यों की स्मृति क्षीण होने लगी। ग्यारह अंग और दस पूर्व ज्ञान के धारी मुनि 182 ई. पू. तक हुये। फिर केवल ग्यारह अंग के धारी मुनि 49 ई. पू. तक हुए। इसके उपरान्त दस अंग के ध परी मुनि भी कम होते गये और केवल एक अंग के धारी मुनि की परम्परा चलती रही। महावीर भगवान 527 ई. पू. को मोक्ष पधारे थे। इसके 683 वर्ष बाद सन् 156 ईस्वी में प्रथम बार षट्खण्डागम के रूप में आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबली द्वारा श्रुत की रचना पूर्ण हुई। यह लिपिबद्ध आगम आज हमें अनेक रूपों में मिलता है। इस प्रकार इन्हीं की परम्परा में आचार्य % 377 -

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