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सर्व सावद्ययोग के प्रत्याख्यान स्वरुप एक महाव्रत है। उसके विशेष या भेद हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह की विरतिस्वरुप पाँच महाव्रत हैं तथा उसकी परिकरभूत पाँच प्रकार की समिति, पाँच प्रकार का इन्द्रियनिरोध, केशलुञ्च, छह प्रकार के आवश्यक, अचेलकत्व (नग्नता) अस्नान, भूमिशयन, अदंत धावन (दांतुन न करना) खड़े-खड़े भोजन और एक बार आहार लेना। इस प्रकार यह (अट्ठाईस ) एक अभेद सामायिक संयम के विकल्प (भेद) होने से श्रमणों के मूलगुण ही हैं। जब श्रमण एक सामायिक संयम में आरूढ़ता के कारण जिसमें भेदरूप आचरण सेवन नहीं है, ऐसी दशा से च्युत होता है, तब 'केवल सुवर्णमात्र के अर्थी को कुण्डल, कंकण, अंगूठी आदि को ग्रहण करना (भी) श्रेय है किन्तु ऐसा नहीं है कि (कुण्डल इत्यादि का ग्रहण कभी न करके) सर्वथा स्वर्ग की ही प्राप्ति करना ही श्रेय है' ऐसा विचार करके वह मूलगुणों में भेदरुप से अपने को स्थापित करता हुआ अर्थात् मूलगुणों में भेदरूप से आचरण करता हुआ छेदोपस्थापक होता है। (सकलचारित्र का विशेष वर्णन सम्यकं चरित्र के प्रथम सोपान में दृष्टव्य है | )
सम्यक्चारित्र के चार सोपान
1. अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति
2. ज्ञान दर्शन की एकता
3. समता और शमता
4.
आत्मा में स्थिरता ।
सम्यक्चारित्र का प्रथम सोपान : अशुभ से निवृत्ति, शुभ में प्रवृत्ति
सम्यक चारित्र को धारण करने के चार सोपान हैं। प्रथम सोपान अशुभ से निवृत्ति तथा शुभ में प्रवृत्ति करना है । सर्व प्रथम आपको यह समझना है कि अशुभ क्या है, और शुभ क्या है, अशुभ पापभाव है और शुभ पुण्यभाव है। पहले गुणस्थान से लेकर तीसरे गुणस्थान तक तारतम्य से अशुभ उपयोग रहता है। चौथे गुणस्थान से लेकर छठवें गुणस्थान पर्यंत तारतम्य से शुभ उपयोग रहता है। सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान पर्यंत तारतम्य से शुद्ध उपयोग रहता है। तेरहवाँ व चौदहवाँ गुणस्थान शुद्ध उपयोग का फल है।
आत्मा के परिणाम
आत्मा के परिणाम तीन प्रकार के होते हैं।
1. संक्लिष्ट परिणाम - ये अशुभ परिणाम हैं जो पाप रूप होते हैं।
2. विशुद्ध परिणाम- ये शुभ परिणाम है जो पुण्य रूप होते हैं।
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