Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 376
________________ क मिलती है, ऐसा जानकर आपको विवेक से कार्य करना चाहिए। पद्मपुराण में एक जगह लिखा है कि सीता राजा जनक की पुत्री थी। उत्तर पुराण में लिखा है कि सीता रावण की पुत्री थी। प्रथमानुयोग ग्रन्थों का आर्ष ग्रन्थों से मूल नहीं खाता। प्रथमानुयोग ग्रन्थों से तो हमें राग से वैराग्य की शिक्षा लेना है, इस दृष्टि से अनुयोग कार्यकारी है। संसार में प्रायः यह देखा जाता है कि जैसे बाह्य निमित्त हों, उनको देखने से उस ही जैसे परिणाम होते हैं। जैसे-यदि हम कोई चरित्रहीन व्यक्ति का चित्र देखते हैं तो हृदय में काम वासना पैदा होती है। यदि किसी वीर पुरुष की फोटो देखते हैं तो वीर रस का संचार होता है, और यदि किसी साधु-महात्माओं का चित्र देखते हैं तो हृदय में वैराग्यभावों का संचार होता है। ठीक इसी प्रकार तीर्थकर भगवान की आदर्श प्रतिमा के दर्शन-पूजा से आत्मा में वीतराग भावों का संचार हए बिना नहीं रहता। तीर्थकर भगवान की प्रतिमा देखने से आत्मा में ये भाव होते हैं कि धन्य हैं इनका आदर्श त्याग, धन्य है इनकी आत्मिक और शारीरिक शक्ति, जिसके द्वारा आत्मा स्वाभाविक, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य रूप शक्ति को प्राप्त कर जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त हुए हैं। वीतराग प्रभु की प्रतिमा के दर्शन से वीतराग भावों की उत्पत्ति होती है। यदि वीतराग प्रभु की मूर्ति न होती, तो फिर हमारी आत्मा में ये आदर्श भाव भी पैदा नहीं हो सकते। तब मोक्ष के उपाय की बात भी नहीं सोच सकते और सांसारिक विषय कषाय रूपी कीचड़ से किसी प्रकार भी नहीं निकल सकते। अत: तीर्थङ्कर भगवान् की मूर्ति धार्मिक भाव पैदा करने में प्रधान कारण है। जो लोग यह कहते हैं कि जैन लोग पत्थर की उपासना करने वाले हैं वे लोग जैनाचार्यों के सिद्धान्तों से शायद बिलकुल ही अनभिज्ञ हैं। क्योंकि जैन लोग तीर्थङ्ककर भगवान् की मूर्ति को देखकर भगवान् के वास्तविक स्वरूप तथा उनकी आत्मा की विशुद्ध वीतराग विज्ञान परिणति की उपासना करते हैं कि हे प्रभो! आपने राज्य लक्ष्मी को तृण के समान तुच्छ समझते हुए त्याग कर जैनेश्वरी दीक्षा धारण की, जिसमें लेश मात्र भी आरंभ परिग्रह नहीं था। आपने आत्मध्यान रूपी प्रज्वलित अग्नि से घातिया रूप कर्म ईंधन को भस्म कर दिया। जिससे आपकी आत्मा में अनन्त चतुष्टय उत्पन्न हो गये, तथा जन साधारण में पाये जाने वाले क्षुधा, तृषा भय, राग, द्वेष, चिन्ता आदि 18 दोषों से रहित होकर वीतराग की पराकाष्ठा को प्राप्त हुए। आपकी आत्मा में अनन्त गुण हैं जिन्हें वृहस्पति भी निरूपण करने में समर्थ नहीं है, फिर हम सरीखे अल्पज्ञानी उनका निरूपण कर किस प्रकार शक्ति प्रदान कर सकते हैं। तो भी क्या दीपक की लौ से सूर्य की उपासना नहीं की जाती, उसी नीति के अनुसार आप की भक्ति के कारण उपासना करने को हम तत्पर हो रहे हैं। हे प्रभो! आपने केवलज्ञान उत्पन्न हो जाने पर उस महान धर्मतीर्थ का निरूपण किया, जिसकी छत्रछाया में रह कर संसार के प्राणी आवागमन से छुटकारा पाकर % E 353

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