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अब सेठ सभी लड़कों को अपने पास बुलाते हैं और सबसे पहले कमाऊ पुत्र से पूछते हैं कि कहो किसका कितना भाग्य है, तब वह कमाऊ बेटा कहता है- 'पिताजी! मेरा तो केवल एक रुपया का भाग्य है, और जुआरी बेटा का, उसका मेरे से दस गुना अधिक का भाग्य है और पुजारी बेटे का, पिताजी उसका तो मेरे से अनगिनत गुणा अधिक भाग्य है। तो क्या तुम अब भी सबसे अलग होकर रहना चाहते हो, नहीं नहीं पिताजी, अब अलग होकर नहीं रहूँगा । मुझे पता चल गया है कि सबका भाग्य सबके साथ है। कोई किसी को पालता - पोषता नहीं, सब अपने-अपने भाग्य से पलते हैं।
इस दृष्टान्त से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने वाले का भाग्य चारों पुत्रों में सर्वश्रेष्ठ था।
जिनेन्द्र भगवान की पूजन करने से मोह का अभाव होता है- आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जादि अप्पाणं मोहो खलु जाति तस्स लयं ॥
जो अरहंत को द्रव्य, गुण और पर्याय की दृष्टि द्वारा जानता है, वह आत्मा को जानता है। और उस जीव का मोह अवश्य नाश को प्राप्त हो जाता है।
जो वास्तव में अरहंत को द्रव्यरूप से, गुण रूप से और पर्याय रूप से जानता है, वह अपनी आत्मा को ही जानता है क्योंकि दोनों अर्थात् अरहंत और अपनी आत्मा में निश्चय नय से कोई अन्तर नहीं है। अरहंत का स्व रूप भी अन्तिम ताव को प्राप्त सोने के स्वरूप की भाँति शुद्ध आत्मा का ही रूप है, इस कारण से उसका ज्ञान होने पर सर्व आत्मा का ज्ञान हो जाता है। सर्व आत्मा का ज्ञान होने पर मोह का विनाश हो जाता है। इस प्रकार मोह के विनाश का उपाय अरहंत भगवान को नमस्कार करना, पूजन करना और स्तुति करना आदि है।
जिन पूजा के भेद
जिनेन्द्र भगवान की पूजा कई प्रकार से की जाती है। कहा है कि
नित्या चतुर्मुखाख्या च कल्पदुमाभिधानका । नैमित्याष्टाह्निकापूजा दिव्यध्वजेतिषष्ठधा ॥ १ ॥
नित्य, चतुर्मुख, कल्पद्रुम, नैमित्तिकी, अष्टाह्निका, और इन्द्रध्वज - ये जिनपूजा के छह भेद हैं। इनका संक्षेप में वर्णन निम्न प्रकार है
1. नित्यपूजा - जो अपने घर, चैत्यालय अथवा मन्दिर में जाकर प्रतिदिन भक्तिपूर्वक
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