Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 375
________________ आदि अनेक सचित्त वस्तुओं का प्रयोग करता है तब भगवान को चढ़ाने में क्यों मना किया जाता है। इसका समाधान यह है कि श्रावक की गृहस्थ की क्रिया, गृहस्थ में ही होती है और भी अनेक मिथ्या और विपरीत क्रियाएँ होती हैं इसलिए गृहस्थ की क्रियाओं की तुलना मन्दिर की क्रियाओं से नहीं की जा सकती। विशेष-भगवान् की मूर्ति को कभी भी चन्दन नहीं लगाना चाहिए। भगवान् की प्रतिमा समस्त परिग्रह रहित होती है, चन्दन लगाने से परिग्रह सहित बन जाती है। इसी प्रकार प्राय: यह भी देखा जाता है कि जब थाल में भगवान को विराजमान करते हैं तब थाल में चन्दन से श्री जी लिखते हैं यह भी भगवान् को चन्दन लगाने के समान ही है, क्योंकि ठीक इसके ऊपर भगवान विराजमान करके ऊपर से जलधारा छोड़ते समय जल में चन्दन मिलने से प्रतिमा चन्दन युक्त होती है। प्रतिमा को श्रृंगार युक्त नहीं बनाना चाहिए। चन्दन लगाना श्रृंगार करना ही है, इस क्रिया से भगवान की वीतराग मूर्ति में दोष उत्पन्न होता है और इसका पाप चन्दन लगाने वाले और ऐसी प्रतिमा को पूजने वाले को लगता है। श्री जी भी चौकी पर लिखा जा सकता है। हमें निष्पक्ष होकर विचार करना चाहिए। हम प्रथमानुयोग ग्रंथों के उदाहरणों से सिद्धान्तों की परिपुष्टि के लिए दृष्टान्त को कसौटी नहीं कह सकते क्योंकि प्रथमानुयोग के ग्रथों के एक ही कथानक में परस्पर विपरीतता देखी जाती है। इन ग्रंथों से हमें राग से वैराग्य की शिक्षा लेनी चाहिए। मूर्ति पूजा पत्थर की या गुणों की- इस काल में भगवान की मूर्ति आत्मकल्याण के लिए सच्चा अवलम्बन है। यह संसार समुद्र से पार उतरने के लिए नौका के समान है। यह मूर्ति वीतराग भावों को उत्पन्न करने में निमित्त कारण है। कहा भी है कि आप्तस्यासन्निधानेऽपि पुण्याया कृतिपूजनम्। तार्क्ष्य मुद्रा न किं कुर्यात् विषसामर्थ्यसूदनम्॥ - यशस्तिलक, 1 तीर्थङ्कर भगवान के न होने पर भी उनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाओं की भक्ति पूजन से महान् सातिशय पुण्य बंध होता है। जैसे गरुड़ के न होने पर भी उसकी मूर्ति मात्र से क्या सर्प का विष नहीं उतरता? अवश्य उतरता है।इस प्रकार आप पक्षपात छोड़कर निष्पक्ष हो जाएं। यह धर्म तो दिगम्बर एवं वीतरागी है। यह अहिंसामय धर्म है। रूढ़ियों को पकड़ कर बैठने से काम नहीं चलेगा, मोक्षमार्ग नहीं बनेगा। अब आप प्रश्न उठा सकते हैं कि प्रथमानुयोग ग्रन्थों में ऐसे बहुत से कथन मिलते हैं, जिनको करना उचित लग रहा है, किन्तु आप उनको आगम विरुद्ध कहते हैं। इसका समाधान यह है कि प्रथमानुयोग तो एक अलंकार ग्रन्थ है, उसमें अतिशयोक्ति अधि 352

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