Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 339
________________ आप को बड़ा समझ रहा है। उस भार के कारण उसको जो वेदना हो रही है, उस वेदना को वह दूसरों पर प्रकट नहीं करना चाहता। ऐसे व्यक्ति मन में परिग्रह की आसक्ति और अहंकार की भावना रखकर भगवान के चरणों की आराधना करते हैं। उनकी यह आराधना कैसे सफल हो सकती है? इसमें आश्चर्य की क्या बात है कि परिग्रहधारी वास्तव में संसार में कभी भी बड़े नहीं हो सकते। उनमें कुछ बड़ी चीजें अवश्य हैं वे हैं उनकी चिंताएँ, उनके मन में विशाल भय व्याप्त रहता है, उनकी तृष्णाएँ बड़ी हैं, और उनके पाप भी बहुत बड़े हैं। इसलिए आचार्य कहते हैं कि, हे भव्य ! यदि संसार से तुझे तरना है, पार होना है तो परिग्रह रूपी बोझ को हल्का कर अन्यथा संसार में तुम भी पत्थर लिपटी मिट्टी के समान नीचे को डूबते जाओगे। इस परिग्रह को जिसो ग्रहण किया, उसने कष्ट पाया जैसे सुभौम ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती उसमें लीन रहे, तो उन्हें सातवें नरक जाना पड़ा, दूसरी ओर भरत चक्रवर्ती जैसे घर में रहते हुए छियानवे हजार रानी, चौदह रत्न और नवनिधि, चौरासी लाख हाथी, अठारह करोड़ घोड़े रहते हुए भी निष्परिग्रही थे, जब वे इस समस्त सम्पदा को छोड़कर मुनि बने तो अन्तमुहूत में केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। परिग्रह अर्थात् संग्रह करने की तृष्णा की कोई सीमा नहीं होती। इसलिए पं. बनारसीदास जी कहते हैं कि जो दस बीस पचास भये सत्, होत हजार तो लाख चहेगी। कोटी, अरब्य, खरब्य, असंख्य की, प्रतिपति होने की चाह जगेगी। स्वर्ग - पाताल का राज्य करो, तृष्णा अघ की आग लगेगी। सुन्दर एक सन्तोष बिना, तेरी तो भूख कभी न भगेगी। जब मनुष्य के पास दस-बीस या पचास रुपये हो जाते हैं तब हजार या लाख रुपये होने की इच्छा जागृत हो जाती है, फिर हजार लाख भी हो जायें तो करोड़, अरब - खरब होने की इच्छा हो जाती है। दूसरे शब्दों में इच्छायें मृगतृष्णा के समान हैं, जो कभी समाप्त नहीं होती । चाहे तीनों लोकों की सम्पदा भी मिल जाय फिर भी तृष्णा रूपी आग नहीं बुझेगी। अतः जो जीव संतोष रहित है उसकी तृष्णा की भूख कभी नहीं खत्म हो सकती। इसलिए संतोष धारण करना ही सुन्दर है अर्थात् सुखी होने का उपाय है। अपरिग्रह के भेद - अपरिग्रह दो प्रकार का होता है। प्रथम निश्चय अपरिग्रह एवं दूसरा व्यवहार अपरिग्रह | 316

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