Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Narendra Jain, Nilam Jain
Publisher: Digambar Jain Mandir Samiti

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Page 340
________________ निश्चय अपरिग्रह-आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोह, राग-द्वेष आदि भाव निश्चय परिग्रह और ऐसे भाव न उठना ही निश्चय अपरिग्रह है। दूसरे शब्दों में मूर्छा को ही निश्चय परिग्रह जानना चाहिए और मूर्छा रहित होना ही निश्चय अपरिग्रह है। चारित्रमोहनीय कर्म के उदय को प्राप्त हुआ जो ममत्व परिणाम है, अर्थात् 'यह मेरा है' ऐसा परिणाम ही मूर्छा है। ममत्व परिणाम ही वास्तविक परिग्रह है इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं मूर्छालक्षणकरणात् सुघटा व्याप्तिपरिग्रहत्वस्य। सग्रन्थो मूर्छावान् विनापि किल शेषसंगेभ्यः॥ - पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 112 परिग्रह का मूर्छा लक्षण करने से व्याप्ति भले प्रकार से घटित होती है, क्योंकि बाह्य परिग्रह बिना भी मूर्छा करने वाला पुरुष निश्चय से बाह्य परिग्रह सहित है। दूसरे शब्दों में जहाँ-जहाँ मूर्छा है वहाँ-वहाँ परिग्रह अवश्य है और जहाँ मूर्छा नहीं है, वहाँ परिग्रह भी नहीं है। मूर्छा की परिग्रह के साथ व्याप्ति है। जैसे कोई जीव नग्न है, बाह्य परिग्रह से रहित है, परन्तु यदि अन्तरंग में मूर्छा अर्थात् ममत्वपरिणाम हैं तो वह परिग्रहवान् ही है और एक ममत्व के त्यागरूप दिगम्बर मुनि के पीछी, कमण्डलुरूप बाह्य परिग्रह होने पर भी अन्तरंग में ममत्व नहीं है, इसलिए वह वास्तविक परिग्रह रहित ही है। व्यवहार अपरिग्रह-अपनी स्व आत्मा के अतिरिक्त बाह्य सभी चेतन व अचेतन वस्तुओं का त्याग करना व्यवहार अपरिग्रह है। दूसरे शब्दों में वाह्य परिग्रह को व्यवहार परिग्रह कहते हैं और इसके त्याग को व्यवहार अपरिग्रह कहते हैं। वाह्य परिग्रह निमित्त कारण है निश्चय परिग्रह का। परिग्रह के भेद-आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - अतिसंक्षेपाद् द्विविधः स भवेदाभ्यन्तरश्च वाह्यश्च। प्रथमश्चतुर्दशविधो भवति द्विविधो द्वितीयस्तु॥ -पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 115 यह परिग्रह अत्यन्त संक्षेप से अन्तरंग और बहिरंग दो प्रकार का है। पहला अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकार का तथा दूसरा बहिरंग परिग्रह दो प्रकार का होता है। 1. अन्तरंग परिग्रह-आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - मिथ्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड्दोषाः। चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः।। - पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 116 = - 317

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