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प्रविहाय च द्वितीयान देशचरित्रस्य सन्मखायातः। नियत ते हि कषायाः देशचरित्रं निरुन्धन्ति।
-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 125 अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ को छोड़कर फिर देशचारित्र के सम्मुख आता ॥ है, क्योंकि ये कषायें निश्चित रूप से एकदेश चारित्र को रोकते हैं। आगे आचार्य कहते हैं कि
निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरंगसंगानाम्। कर्तव्यः परिहारो मार्दवशौचादिभावनया।।
-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 126 अपनी शक्ति से मार्दव शौच, संयमादि दशलक्षण धर्म द्वारा अवशेष सभी अन्तरंग परिग्रहों का त्याग करना चाहिए। दूसरे शब्दों में अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकार का है। उनके नाम ऊपर बताए गए हैं। मिथ्यात्व, चौकड़ी रूप चार कषाय तथा हास्यादि नोकषाय, इस तरह चौदह भेद हैं, इनका श्रमपूर्वक त्याग करना चाहिए। इनमें से मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन
और स्वरूपाचरण चारित्र का घात करती हैं। अप्रत्याख्यानावरणी देशचारित्र का घात करती हैं, अर्थात् श्रावक पद नहीं होने देती। प्रत्याख्यानावरणी नामक चार कषाएँ सकल संयम का घात करती हैं, अर्थात् मुनिपद नहीं होने देती तथा संज्वलनादि चार हास्यादि छह और तीन वेद ये सभी यथाख्यातचारित्र के घात में निमित्त हैं। इस प्रकार इन सभी व्रतों को क्रमपूर्वक धारण करके अन्तरंग परिग्रह को छोड़ना चाहिए। __ आगे आचार्य अमृतचन्द कहते हैं -
बहिरंगादपि संगात् यस्मात्प्रभवत्यसंयतोऽनुचितः। परिवर्जयेदशेषं तमचित्तं वा सचित्तं वा।।
- पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 127 बाह्य परिग्रह को, भले ही वह अचेतन हो या सचेतन हो सम्पूर्णरूप से छोड़ देना चाहिए, क्योंकि बहिरंग परिग्रह से भी अयोग्य अथवा निन्द्य असंयम होता है। दूसरे शब्दों में बाह्य परिग्रह में संसार के सभी पदार्थ प्रायः आ जाते हैं, इसलिए बाह्य परिग्रह के सजीव और अजीव ऐसे दो भेद किये हैं। रुपया-पैसा खेती आदि अजीव परिग्रह हैं और हाथी, घोड़ा, बैल, नौकर-चाकर आदि सजीव परिग्रह हैं-इनका भी एकदेश और सर्वदेश त्याग होता है।
आचार्य समन्तभद्र कहते हैं -
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