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6. हास्य-जिसके उदय से हँसी आये वह हास्य परिग्रह है। 7. रति-जिसके उदय से जर से प्रेम या उसके प्रति उत्सुकता हो वह रति परिग्रह है। 8. अरति-जिसके उदय से किसी से द्वेष या अभिरुचि हो वह अरति परिग्रह है।
9. भय-जिसके उदय से उद्वेग या डर लगे वह भय परिग्रह है। 10. शोक-जिसके उदय से चिन्ता हो वह शोक परिग्रह है। 11. जुगुप्सा-जिसके भय से ग्लानि हो वह जुगुप्सा परिग्रह है। 12. पुरुष वेद-जिसके उदय से स्त्री में रमने की इच्छा हो वह पुरुष वेद परिग्रह है। 13. स्त्री वेद-जिसके उदय से पुरुष में रमने की इच्छा हो वह स्त्री वेद परिग्रह है। 14. नपुंसक वेव-जिसके उदय से स्त्री और पुरुष दोनों में रमने की इच्छा हो, उसे नपुंसक
वेद परिग्रह कहते हैं। उपर्युक्त सभी परिग्रह इसलिए हैं कि ये आत्मा के भाव हैं, कर्मों के संयोग से जीव इन्हें अपनाता है। अन्तरंग इसलिए कहे जाते हैं कि वाह्य परिग्रह की तरह वाय में इनका कोई स्वरूप दिखाई नहीं देता है केवल इनका कार्य मात्र दिखलाई
देता है। 2. वाह्य परिग्रह-आचार्य शिवकोटि कहते हैं कि
क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदं।
यानं शय्यासनं कुष्यं भांडं संगा बहिर्दश। खेत, रहने का मकान, सोना-चाँदी, चावल-गेहूँ आदि अन्न, दो पैर वाले जीव अर्थात् दास-दासी आदि, चार पैर वाले जीव, अन्य हाथी-घोडा-गाय-भैंस आदि, पालकी रथ आदि सवारी, पलंग-सिंहासन आदि सोने एवं बैठने की चीजें, सोना-चाँदी के अतिरिक्त अन्य सब धातुएँ अथवा वस्त्र और बर्तन किराने आदि का सामान ये दश प्रकार के वाय परिग्रह माने गये हैं। संक्षेप में बाह्य के दो भेद निम्न हैं - 1. चेतन परिग्रह-अन्तरंग परिग्रह के जो चौदह प्रकार हैं वे सब चेतन रूप ही हैं,
क्योंकि वे सब आत्मा के परिणाम हैं। बाह्य परिग्रह में जो दस प्रकार के परिग्रह (दास-दासी आदि) तथा चतुष्पद (हाथी, घोड़ा, गाय, भैस आदि) हैं वे सब चेतन परिग्रह है।
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