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नाम धारण कर साधु के आचरण से हीन होता है और साधु के लिए अयोग्य बताये गये कार्यों को करता है । औषध चिकित्सा से मन्त्र तन्त्र, झाड़ना, फूँकना आदि प्रयोगों से एवं ज्योतिष शास्त्र आदि से भविष्य कथन द्वारा अपनी आजीविका चलाते हैं। राजा या किसी ऐश्वर्यशाली के कृपा - पात्र बनकर अपना निर्वाह करते हैं, उसे संसक्त साधु कहते हैं। जो गृहस्थों के साथ निरन्तर संसर्ग रखते हैं और धनादि परिग्रह में आसक्त रहता है, उन्हें भी संसक्त कहते हैं।
3. अवसन्न साधु-जो जिनेन्द्र देव के वचनों से अनभिज्ञ हैं, जिन्होंने चारित्र पालन को छोड़ दिया है, जो ज्ञान और चरित्र से पतित हैं और क्रिया पालन में शिथिल हैं, उन्हें अवसन्न साधु कहते हैं जो जैन सिद्वान्त के ज्ञान से शून्य हैं, जिन्हें ज्ञान नहीं है और जो आचरण से भी भ्रष्ट हैं। जो बाह्य क्रिया का भी पालन नहीं करते हैं, बिना नकेल के ऊँट के समान आचरण करते हैं, और भोले जीवों को मिथ्या मार्ग का गामी बना देते हैं, ऐसे पतित साधुओं को अवसन्न साधु कहते हैं।
4. मृगचारी साधु - जो मुनिसंघ का त्याग करके स्वच्छन्द होकर विहार करता है, जिनेन्द्र देव के उपदेश से भिन्न मार्ग का उपदेश करता है तथा जिनवचनों की निन्दा करता है ऐसे उच्छृंखल साधु को मृगचारी साधु कहते हैं। दूसरे शब्दों में जो जिन आज्ञा के विपरीत चलता है, अर्थात् अकेला विहार करता है, जो गुरु की आज्ञा की अवहेलना कर संघ को छोड़ देता है स्वच्छन्द गमन करता है, वह मृग अर्थात् पशु के समान आचरण करने वाला भ्रष्ट साधु मृगचारी कहलाता है।
5. कुशील साधु - क्रोधादि कषायों से जिसकी आत्मा मलिन है, जो व्रत, गुण और शील से रहित है तथा संघ में अनीति का व्यवहार या प्रचार करने वाला है, ऐसे दुर्वृत्त साधु कुशील साधु हैं। दूसरे शब्दों में जिस साधु की आत्मा में क्रोधाग्नि की ज्वालाएँ जलती रहती हैं, जो मान के शिखर पर रहता है, अपने सामने दूसरों को कुछ नहीं समझता है, जो माया और लोभ के मैल से सदा मलिन रहता है, अहिंसादि व्रतों क्षमादि धर्मों और व्रत- रक्षक गुणों से हीन है, संघ में उपसर्ग कलह आदि करने का जिसका स्वभाव हो, उस दुःशील धारक साधु को कुशील साधु कहते हैं।
उपर्युक्त पाँचों प्रकार के साधु पतित, हीनाचारी व जिनशासन के विपरीत चलने वाले हैं, इसलिए इनका सम्पर्क सर्वथा त्याज्य है। प्राण जाने पर भी इनका साथ नहीं करना चाहिए और न ही किसी प्रकार की इन्हें सहायता ही देनी चाहिए। लेकिन आज के इस कलिकाल में शुद्ध उपयोग की बात ऊँची है, शुभ उपयोग में भी न रहकर अशुभ उपयोग प्रवृत्ति करते हैं।
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