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यह केवल व्यवहार दृष्टि से है, निश्चय दृष्टि से ये तीनों आत्मा की पर्याय हैं, भेद रूप नहीं हैं। ज्ञानगुण एक ही है, अनेक भेदरूप नहीं है।
सम्यक् चारित्र का तीसरा सोपान : समता-शमता सम्यग्चारित्र धारण करने के लिए "समता और शमता" का होना अतिआवश्यक है। इन दोनों का समन्वय जीवन के किस स्तर पर होता है. इस सन्दर्भ में आचार्य समन्तभंद्र कहते हैं कि
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः। रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः।
रलक.माव. 47 दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं। जिसके ये दोनों प्रकट हो जाते हैं, वह निकट भव्य अपने राग-द्वेष को दूर करने के लिए बद्धिपूर्वक सम्यग्चारित्र को धारण करता है। समता और शमता दोनों सम्यग्चारित्र के अपर नाम ही हैं। समता बाह्य चारित्र से सम्बन्धित आचरण है जिसके अन्तर्गत मुनियों के 28 मूलगुण, 22 परिषह को जीतना आदि आते हैं, दूसरी ओर शमता अन्तरंग चारित्र से सम्बन्धित आचरण है जिसके अन्तर्गत चारों कषाओं को जीतना, इन्द्रियों को जीतना, ध्यान में स्थिर होना आदि आते हैं। इस प्रकार इन दोनों अर्थात् समता एवं शमता को धारण करके ही सम्याचारित्र की पूर्णता हो सकती है। समता-शमता का धारक मोक्षमार्ग को बना लेता है, और नियम से वीतरागी हो जाता है, क्योंकि इसके धारण करने वाले के शुद्ध परिणाम होते हैं। ___ जीव के तीन प्रकार के परिणाम-समस्त संसारी जीवों में तीन प्रकार के परिणाम पाये जाते हैं। 1. शुभ परिणाम-इसके अन्तर्गत दया, पूजा, संयम आदि रूप परिणाम आते हैं। 2. अशुभ परिणाम-इसके अन्तर्गत हिंसा, झूठ, चोरी आदि परिणाम आते हैं। 3. शुद्ध परिणाम-समता एवं शमता युक्त परिणाम इसके अन्तर्गत आते हैं।
समस्त संसारी जीवों में कम या अधिक रूप से शुभ तथा अशुभ परिणाम ही पाये जाते हैं, शद्ध नहीं। किन्तु किन्हीं साधकों में कभी-कभी ध्यानादि के समय कुछ शुद्ध परिणाम भी पाये जाते हैं। सम्यग्दृष्टियों में हर समय शुद्ध परिणाम का कुछ न कुछ अंश अवश्य पाया जाता है। ये शुद्ध परिणाम बन्ध का कारण नहीं होते, बल्कि पूर्व बन्ध को काटने में कारण हैं एवं ये ही परिणाम आगे जाकर वीतरागता का मोक्ष का कारण बनते हैं। शुभ और अशुभ परिणाम संसार का कारण माने गये हैं।
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