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3. शुद्ध परिणाम-शुद्ध परिणाम एक वीतराग भाव है, जो पुण्य-पाप से अलग होते हैं। यही परिणाम मोक्ष का कारण बनता है। बिना सम्यग्दर्शन के शुभ परिणाम भी अशुभ ही माने गये हैं। जब मुनिराज आत्मध्यान में लीन होते हैं तब शुद्ध परिणाम होते हैं, जब वे ध्यान से हट जाते हैं तो शुभ उपयोग में प्रवृत्ति होती है। अणुव्रतों को या महाव्रतों का धारण करना शुभ उपयोग है। जैसा कि बताया था व्रतों के या चारित्र के दो भेद होते हैं
एकदेश (विकल) चरित्र-विकल चारित्र व्रत श्रावक पालते हैं। इसके अन्तर्गत पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत आते हैं जिनका विस्तृत वर्णन पूर्व में किया जा चुका है।
सर्वदेश (सकल) चरित्र-सकल चारित्र व्रत मुनिराज पालते हैं व्रत पालने की संपूर्णता होने के कारण ये व्रत महाव्रत कहलाते हैं। इनके अन्तर्गत पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, पाँच इन्द्रियों पर विजय, छः आवश्यक तथा सात अस्नान आदि शेष गुण आते हैं। इनका पालन करना ही मुनिराजों की शुभ प्रबृत्ति कहलाती है। इस प्रकार जब श्रावक और मुनि अशुभ से हटकर शुभ में लगते हैं तब वही प्रवृत्ति शुभ कहलाती है। क. अहिंसा महाव्रत-प्रमाद के योग से किसी के भी प्राणों का हनन करना द्रव्यहिंसा है। छहढाला में कहा गया है
षट्काय जीव न हननतें सब विधि दरव हिंसा टरी।
रागादि भाव निवारतें हिंसा न भावित अवतरी॥ पृथ्वी कायिक आदि पांच स्थावर और त्रस जीव इस प्रकार छहकाय के जीवों में से किसी को भी मार देना द्रव्यहिंसा है और राग-द्वेष आत्मा के भाव हो जाने को भाव हिंसा कहते हैं। महाव्रती मुनिराज इन दोनों प्रकार की हिंसा से दूर ही रहते हैं।
उच्चालिदम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए। आबाधेज्ज कुलिंग मरिज्ज तं जोगमासेज्ज। ण हि तस्स तििमत्तो बंधो सुहमो वि देसिदो समय। मुच्छा परिग्गेहोच्चिय य अज्झप्पपमाणदो भणिदो॥
-प्रवचनसार, 3.1,2 जब मुनिराज मार्ग में देखकर गमन करते हैं तब उस मार्ग में यदि अचानक कोई त्रसकाय जीव आकर गिर जाये और मुनिराज के पाँव तले दबकर मर जावे, ऐसी अवस्था में मुनिराज को प्राणी हिंसा का पाप नहीं लगता, क्योंकि उनके प्राणी मारने के परिणाम नहीं हैं, अपितु बचाने के ही भाव हैं।
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