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आचार्य आगे कहते हैं
एको द्विधा त्रिधा जीवः चतुः संक्रान्तिपञ्चमः। षट्कर्म सप्तभङ्गोऽष्टाश्रयो नवदशस्थितिः॥१८॥
(ज्ञा. सर्ग 6) जीव सामान्य चैतन्यरूप से एक प्रकार के हैं। त्रस, स्थावर भेद से दो प्रकार के हैं। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय से तीन प्रकार के हैं। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, संज्ञा, असंज्ञी भेद से चार प्रकार के हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के भेद से पाँच प्रकार के हैं। पाँच स्थावर, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय ऐसे भेद करने से सात प्रकार हैं। पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, एक सकलेन्द्रिय ऐसे नव प्रकार के हैं। पाँच स्थावर, विकलेन्द्रिय और संज्ञी तथा असंज्ञी ऐसे भेद करने से दस प्रकार के भी हैं। इस प्रकार सामान्य विशेष के भेद से जीव संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त भेद रूप हैं।118।। अब आगे आचार्य कहते हैं
भव्याभव्यविकल्पोऽयं जीवराशिनिसर्गजः। मतः पूर्वोऽपवर्गाय जन्मपङ्काय चेतरः॥१९॥
(ज्ञा. सर्ग 6) यह जीव राशि स्वभाव से भव्य और अभव्य स्वभाव स्वरूप है। पहला अपवर्ग अर्थात मोक्ष के लिए और इतर अर्थात् दूसरा अभव्य संसार के लिए माना गया है, अर्थात् भव्य मोक्ष मार्गी होता है और अभव्य को कभी मोक्ष नहीं होता है। आचार्य इसी को आगे कहते हैं
द्वयोरनादिसंसारः सान्तः पर्यन्तवर्जितः। वस्तुस्वभावतो ज्ञेयोभव्याभव्याङ्गिनोः क्रमात्॥२४॥
(ज्ञा. सर्ग 6) भव्य अभव्य दोनों के ही संसार आदि रहित है; परन्तु भव्य का तो संसार अन्त सहित है (क्योंकि इसको मुक्ति होती है) और अभव्य का अन्त रहित है (क्योंकि इसको मुक्ति नहीं होती है) ऐसा वस्तुस्वभाव से ही जानना चाहिए। इसमें कोई अन्य हेतु नहीं है।।24।। आचार्य आगे कहते हैं
चतुर्दशसमासेषु मार्गणासु गुणेषु च। ज्ञात्वा संसारिणो जीवाः श्रद्धेयाः शुद्धदृष्टिभिः॥२५॥
(ज्ञा. सर्ग 6) संसारी जीवों को चौदह जीवसमास, चौदह मार्गणा और चौदह गुणस्थान में जान करके सम्यग्दृष्टियों को श्रद्धान करना चाहिए।