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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कहते है :
कामक्रोधमदादिसु चलयितुमुदितेषु वर्त्मनो न्यायात् । श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ॥
काम, क्रोध, मदादि विकार न्यायमार्ग से अर्थात् धर्म मार्ग से विचलित करने के लिए प्रगट हुए हों तब शास्त्रानुसार अपनी और पर की स्थिरता भी करनी चाहिए।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में आचार्य कार्तिकेय कहते हैं:
जो धर्म से चलायमान होते हुए दूसरे को धर्म में स्थापित करता है और उस आत्मा को भी दृढ़ करता है उसके निश्चय से स्थितिकरण गुण होता है।
मुनि वारिषेण की कहानी
सद्दर्शन से, सदाचरण से विचलित होते है जो जन । धर्म-प्रेम वश उन्हें करें फिर, सुस्थिर देकर तन-मन-धन स्थितिकरण नामक यह छट्टा, अंग धर्म द्योतक प्रियवर | 'वारिषेण' श्रेणिक का बेटा, ख्यात हुआ चल कर इस पर ॥
भगवान महावीर के समय में राजगृही नगरी में राजा श्रेणिक का राज्य था। उनकी महारानी का नाम चेलना था उनका पुत्र वारिषेण था । राजकुमार वारिषेण की अत्यन्त सुन्दर 32 रानियाँ थी। इतना होने पर भी वह वैरागी था और उसे आत्मा का ज्ञान था ।
राजकुमार वारिषेण एक समय उद्यान ध्यान कर रहे थे उधर से ही विद्युत नामक चोर एक कीमती हार की चोरी करके भाग रहा था। उसके पीछे सिपाही लगे थे। पकड़े जाने के भय से हार को वारिषेण के पैर के पास फेंककर वह चोर एक तरफ छिप गया। इधर राजकुमार को ही चोर समझकर राजा ने उसे फाँसी की सजा दी परन्तु जैसे ही जल्लाद ने उस पर तलवार चलाई, वैसे ही उस वारिषेण के गले में तलवार के बदले फूल की माला बन गई। ऐसा होने पर भी राजकुमार वारिषेण ध्यान में ही मग्न थे। ऐसा चमत्कार देखकर चोर को पश्चात्ताप हुआ। उसने राजा से कहा- असली चोर तो मैं हूँ यह राजकुमार निर्दोष है। "
यह बात सुनकर राजा ने राजकुमार से क्षमा माँगी और उसे राजमहल में चलने को कहा, परन्तु इस घटना से राजकुमार वारिषेण के वैराग्य में वृद्धि हुई और दृढ़ता पूर्वक उन्होंने कहा"पिताजी, यह संसार असार है अब राजपाट में मेरा चित्त नहीं लगता, मेरा चित्त तो एक चैतन्य स्वरूप आत्मा को साधने में ही लग रहा है। इसलिए अब तो मैं दीक्षा लेकर मुनि बनूँगा । " ऐसा कहकर वे तुरन्त ही जंगल में आचार्य भगवन्त के पास गए और दीक्षा ले ली।
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