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या नारायण होता नहीं है। इसलिए अवश्य यह सब बनावटी है क्योंकि जिनवाणी मिथ्या नहीं होती इस प्रकार जिनवाणी की दृढ़ श्रद्धा पूर्वक अमूढदृष्टि अंग से वह जरा भी विचलित नहीं हुई।
तीसरे दिन वहाँ एक नई बात हुई ब्रह्मा और विष्णु के बाद तो पार्वती सहित जटाधारी महादेव शंकर प्रगट हुये गाँव के बहुत लोग उनके दर्शन करने चल दिये। कोई भक्ति से गया तो कोई कौतुहल से गया, परन्तु जिसके रोम-रोम में वीतराग देव बसे हैं ऐसी रेवती रानी पर तो कुछ भी असर नहीं हुआ, उसे कोई आश्चर्य भी नहीं हुआ, उल्टे उसे लोगों पर दया आ गई।
रेवती रानी सोचने लगी- “अरे! परम वीतराग सर्वज्ञ देव, मोक्षमार्ग को दिखाने वाले भगवान को भूल कर मूढ़ता से लोग इन्द्रजाल में कैसे फँस रहे हैं! सच में, भगवान अरहन्त देव का मार्ग प्राप्त होना जीवों को बहुत दुर्लभ है। "
अब चौथे दिन तो मथुरा के विशाल प्रागंण में साक्षात् तीर्थंकर भगवान प्रगट हुये अद्भुत समवसरण की रचना, गंधकुटी जैसा दृश्य और उसमें चतुर्मुख सहित विराजमान तीर्थकर भगवान ! लोग फिर दर्शन करने दौड़े।
राजा ने सोचा- “ इस बार तो तीर्थंकर भगवान आये हैं, इसलिए रेवती रानी अवश्य जायेगी।" परन्तु रेवती रानी ने कहा- “हे महाराज ! अभी इस पंचम काल में तीर्थंकर कैसे? भगवान ने इस भरत क्षेत्र में एक काल खण्ड चौबीस तीर्थंकर होने का विधान कहा हैं और वे ऋषभ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर मोक्ष चले गये हैं। यह पच्चीसवाँ तीर्थकर कैसा ? यह तो कोई कपटी का मायाजाल है। मूढ़ लोग देव के स्वरूप का विचार करते नहीं और एक के पीछे एक दौड़े चले जा रहे हैं। "
बस, परीक्षा हो चुकी । विद्याधर राजा को निश्चय हो गया कि रेवती रानी की जो प्रशंसा श्री गुप्ताचार्य ने की थी, वह यथार्थ ही है । यह तो सम्यक्त्व के सर्व अंगों से शोभायमान है। क्या पवन कभी मेरु पर्वत हिलता है? नहीं, उस सम्यग्दर्शन में मेरु जैसा अकम्प सम्यग्दृष्टि जीव कुधर्म रूपी पवन से जरा भी डिगता नहीं, देव-गुरु-धर्म सम्बन्धी मूढ़ता उसे भाती नहीं, उनकी उचित पहिचान करके सच्चे वीतरागी देव-गुरु-धर्म को ही वह नमन करता है। रेवती रानी की ऐसी दृढ़ धर्म- श्रद्धा देख कर विद्याधर राजा चन्द्रप्रभ को बहुत प्रसन्नता हुई, जब अपने असली स्वरूप में प्रगट होकर उसने कहा- "हे माता! मुझे क्षमा करो। चार दिन से इन ब्रह्मा, विष्णु, महादेव शंकर इत्यादि का इन्द्रजाल मैंने ही खड़ा किया था। पूज्य श्री गुप्ताचार्य महाराज ने आपके सम्यक्त्व की प्रशंसा की थी, इसलिए आपकी परीक्षा करने के लिए ही मैंने यह सब किया था। अहा ! धन्य है आपके श्रद्धान को! धन्य है आपके अमूढदृष्टि अंग को ! हे माता! आपके सम्यकत्व की प्रशंसा पूर्वक श्री गुप्ताचार्य महाराज ने आपके लिए धर्मवृद्धि आशीर्वाद भेजा है। "
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