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कहता है कि सेठ जी आज का तो मैंने खाना खा लिया है और कल का मेरे पास है। मुझे परसों की कोई चिंता नहीं है। यह सुन सेठ जी को कुछ ज्ञान हो जाता है वे सोचते हैं मैं व्यर्थ ही बाइसवीं पीढ़ी की चिन्ता कर रहा हूँ। इस दृष्टान्त का तात्पर्य यह है कि भविष्य की चिंता में डूबे रहने से कर्मों का आस्रव होता है। भूत-वर्तमान और भविष्य की चिन्ता
से ही आस्रव हुआ करता है। 4. किसी नगर में एक मकान में एक साध्वी रहती थी उसके मकान के सामने एक वेश्या
रहती थी। वेश्या के यहाँ भोगी-दुश्चरित्र मानव आते और बहुत सी मिठाइयाँ, फल, मेवा लाते। यह साध्वी विचारती है कि मैं कितनी दु:खी हैं और वेश्या को कितना आनन्द है। 'सुख से रहती, मौज उड़ाती है। उसका वेश्या में ही मन रहता। इधर वेश्या जब साध्वी को देखती, उसकी क्रिया को देखकर विचारती है कि यह तो. हर समय भजन करती रहती है। तपस्या में लीन रहती है। मैं कितनी पापिन हूँ। यदि मैं साध्वी बन जाती तो कितनी सुखी रहती? एक दिन साध्वी का देहान्त हो जाता है। उसकी आत्मा नरक पहुँचकर दु:ख उठाने लगती है। यहाँ इस साध्वी के मृत शरीर को गाजे-बाजे के साथ निकाल रहे हैं। एक दिन वेश्या का भी देहान्त हो जाता है। इसकी आत्मा स्वर्ग पहुँच जाती है। किन्तु इसके शरीर को यहाँ के लोग बाहर जंगल में डाल आते हैं। उसके शरीर को पशु-पक्षी खाने लगते हैं। अब आप ही तुलना करें कि वह साध्वी शरीर से भजन करती थी और उसकी आत्मा वेश्या , की क्रिया में रहती थी। कल उसकी आत्मा नरक में चली गयी और शरीर पूजा जा रहा है, शरीर से ही तो पूजा-पाठ किया था न. आत्मिक भाव नहीं थे। उधर वेश्या के शरीर की क्रिया गलत थी तो शरीर को पशु-पक्षी खाते हैं। आत्मा साध्वी की क्रिया में थी, सो आत्मा स्वर्ग में पहुँच जाती है। अतः धर्मप्रेमी बन्धुओं इन कर्मों के आने के दरवाजों को रोको, तभी संसार बन्धन छूटेगा। यदि आस्रव को नहीं रोका तो संसार परिभ्रमण से नहीं छूट पाओगे।
बन्ध तत्त्व आचार्य नेमिचन्द्र बन्ध के दो भेद बताते हुए कहते हैं
वज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबन्धो सो। कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो॥
-द्रव्यसंग्रह, 32 जिस चैतन्य भाव से कर्म बंधता है वह परिणाम भावबन्ध है और कर्म तथा आत्मा प्रदेशों का एक दूसरे में मिलना द्रव्यबन्ध है।
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