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सम्यग्दर्शनति का तीसरा सोपान : स्व-पर की यथार्थ श्रद्धा
जब जीवों को स्व-पर की (अर्थात् अपना क्या है? पराया क्या है ?) अर्थात् अपना आत्मा क्या है, और जो भी आत्मा से भिन्न पदार्थ है वे अपने नहीं हैं, ऐसी श्रद्धा होती है, तब उसका जीवन सुधर जाता है, अगर हमको भी अपना जीवन सुधारना है तो हमें जिनवाणी की बात ध्यान से सुनना चाहिए और अज्ञानता छोड़कर भेद विज्ञानी बनना चाहिए ।
अज्ञानी व ज्ञानी में अन्तर
संयोजयति देहेन चिदात्मानं विमूढधीः । बहिरात्मा ततो ज्ञानी पृथक् पश्यति देहिनम् ॥३२.११
( शुभचन्द्र ज्ञानार्णव )
जो बहिरात्मा है वह चैतन्यस्वरूप आत्मा का देह के साथ संयोजन करता (जोड़ता ) है अर्थात् एक समझता है; और जो ज्ञानी (अन्तरात्मा) है वह देह से देही (चैतन्यस्वरूप आत्मा) को पृथक् ही देखता है। यही अज्ञान और ज्ञानी के ज्ञान में भेद है।
सुरं त्रिदशपर्यायै नृ' पर्यायैस्तथा
नरम् ।
तिर्यञ्चं च तदङ्गे स्व नारकाङ्गे च नारकम्॥३२.१३॥
अविद्या ( मिथ्याज्ञान) से परिश्रान्त ( खेद खिन्न) मूढ़ वहिरात्मा, देव की पर्यायों सहित आत्मा को देव मानता है और मनुष्य पर्याय सहित अपने को मनुष्य मानता है, तथा तिर्यंच के अंग में रहते हुए को तिर्यंच, और नारकी के शरीर में रहते हुए को नारकी मानता है।
आचार्य और भी कहते हैं
स्वशरीरमिवान्विष्य पराङ्गच्युतचेतनम् ।
परमात्मानमज्ञानी परबुद्धयाऽध्यवस्यति ॥ ३२.१५॥
बहिरात्मा अज्ञानी जिस प्रकार अपने शरीर को आत्मा जानता है, उसी प्रकार पर के अचेतन देह को देखकर पर को आत्मा मानता है, अर्थात् उसको पर की बुद्धि से निश्चय करता है ||15|| आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा
कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्म। जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥ १९ ॥
मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ या हैं हमारे ये सभी । यह मान्यता जब तक रहे अज्ञानी हैं तब तक सभी ॥
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