Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 13
________________ वाद एवं उसकी समीक्षा ६३; बुद्धिगृहीत तात्पर्य हो वाक्य है-इस मत का स्वरूप एवं समीक्षा ६४; आद्य पद (प्रथम पद ) ही वाक्य है-इस मत का स्वरूप एवं समीक्षा ६४; साकांक्ष पद ही वाक्य है ६५; वाक्य के सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण ६५; वाक्यार्थ बोध सम्बन्धी सिद्धान्त ६६; अभिहितान्वयवाद पूर्वपक्ष ६६; वाक्यार्थ के आवश्यक तत्त्व-आकांक्षा ६७; योग्यता ६७; सन्निधि ६७; तात्पर्य ६७; अभिहितान्वयवाद की समीक्षा ६८; अन्विताभिधानवाद पूर्वपक्ष ६९; अन्विताभिधानवाद की समीक्षा ७०. अध्याय ५ वाच्यार्थ निर्धारण के सिद्धान्त : नय और निक्षेप ७३-७९ शब्द का वाच्यार्थ और नय ७३; सप्तनय-नैगमनय ७४; संग्रहनय ७४; व्यवहारनय ७५; ऋजुसूत्रनय ७५; शब्दनय ७५; समभिरूढनय ७६; एवंभूतनय ७६; निक्षेप सिद्धान्त ७७; नामनिक्षेप ७७; स्थापनानिक्षेप ७८; द्रव्यनिक्षेप ७८; भाव निक्षेप ७८. अध्याय ६ भाषा की वाच्यता सामर्थ्य ८०-८६ भाषा की वाच्यता सामर्थ्य सीमित और सापेक्ष ८०; सत्ता की वाच्यता का प्रश्न ८२; अवक्तव्यता का अर्थ ८३. अध्याय ७ भाषा और सत्य ८७-१०० ज्ञान की सत्यता का प्रश्न ८७; कथन को सत्यता का प्रश्न ८८; जैन दर्शन में कथन की सत्यता का प्रश्न ९०; सत्य भाषा ९१; असत्य भाषा ९३, सत्य-मृषा कथन ९४; असत्य-अमृषा कथन ९६; असत्य-अमृषा भाषा के प्रकार-आमन्त्रणी ९६; आज्ञापनीय ९६; याचनीय ९६, पृच्छनीय ९७; प्रज्ञापनीय अर्थात् उपदेशात्मक भाषा ९७; प्रत्याख्यानीय ९७; इच्छानुकूलिका ९७; अनभिग्रहीता ९७; अभिग्रहीता ९७; संदेहकारिणी ९७; व्याकृता ९८; अव्याकृता ९८; भाषायी अभिव्यक्ति को सापेक्षिक सत्यता ९८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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