Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 71
________________ ५८ : जेन भाषादर्शन पद है ।' यद्यपि प्रमाणनयतत्वालोकालंकार में वादिदेवसूरी ने सापेक्ष वर्णों के निरपेक्ष समूह को पद कहा है किन्तु मेरी दृष्टि में यह परिभाषा चाहे 'शब्द' के सम्बन्ध में समुचित हो पद के सम्बन्ध में समुचित नहीं मानी जा सकती है क्योंकि पद वाक्य-सापेक्ष ही होगा । न्याय दर्शन में शब्द और में अन्तर करते हुए कहा गया है वर्णों के अन्त में यथाशास्त्रानुसार विभक्ति होने से पद संज्ञा होती है । वस्तुतः शब्द और पद में अन्तर यह है कि विभक्ति रहित होने से शब्द का अर्थ (वाच्य ) वाक्य निरपेक्ष होता है जबकि विभक्ति युक्त होने से पद का अर्थ ( वाच्य) वाक्य सापेक्ष होता है । विभक्ति युक्त शब्द या शब्द-समूह ही पद होता है। दूसरे शब्दों में वाक्य के अंग के रूप में प्रयुक्त शब्द पद होता है | शब्द, पद और वाक्य का अन्तर शब्द और पद में अन्तर यही है कि शब्द को अपने अर्थ के लिए वाक्य की अपेक्षा नहीं रहती है जबकि पद को रहती है, क्योंकि वह वाक्यांश होता है । उदाहरण के लिए 'गाय' शब्द को अपने अर्थ ( वाक्य विषय) का अवबोध कराने के लिए वाक्य की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु 'गाय को ' —– इस पद का अर्थ तब तक स्पष्ट नहीं होगा- - जब तक कि हमारे समक्ष पूरा वाक्य'गायको लाओ या गायको हो' न हो । यही शब्द और पद में अन्तर है । वाक्य में प्रयुक्त विभक्तियुक्त शब्द ही पद कहलाता है । पद वाक्यांश होता है, उसका अर्थ वाक्य सापेक्ष होता है, जबकि शब्द वाक्य निरपेक्ष होता है । वाक्य में प्रयुक्त विभक्तियुक्त शब्द ही पद बन जाता | पद वाक्य - सापेक्ष होकर ही वाच्यार्थ का प्रतिपादन करता है यही उनकी शब्द से भिन्नता है । पुनः पद Satta का एक विभाग है, वाक्य ही एक ऐसी इकाई है जो पदों एवं प्रकारान्तर से शब्दों के वाच्यार्थ का निर्धारण करती है । अतः अग्रिम अध्याय में हम वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे । १. ( अ ) पद्यते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति पदम् । (ब) अत्थालावो अत्थावगमस्स पदं । २. वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षा संहतिः पद । ३, ते विभत्तयन्ताः पदम् । Jain Education International - अभिधानराजेन्द्र खण्ड ५ पृ० ५०२ - धवला १०४, २, ४, १११८६ ---प्रमाणनयतत्वालोकालंकार ४।१० -न्यायसूत्र २१२/५५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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