Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 69
________________ ५६ : जैन भाषादर्शन युक्त पशु की आकृति चेतना में उभरती है और उसके पश्चात् तद्रूप गाय वस्तु में प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार जैनों के अनुसार यद्यपि शब्द से संकेत ग्रहण यथार्थवस्तु (Real object) में होता है, किन्तु शब्द जिसका पर्याय है वह आकृति है, किन्तु यह विशेषान्वित ही है। जैन इसके साथ यह भी मानते हैं कि शब्द के वाच्यार्थ का निर्धारण या चेतना में शब्द के विषय की आकृति का निर्माण ज्ञान और प्रवचन के द्वारा होता है। जब माता-पिता, गुरु आदि गाय शब्द का उच्चारण करके गाय नामक वस्तु दिखाते हैं तो हम जान जाते हैं कि गाय शब्द का वाच्यार्थ वह पशु है जो गलकम्बलयुक्त है। पुनः गाय शब्द का वाच्य-विषय एक यथार्थ वस्तु है किन्तु उसका वाच्यार्थ गाय की आकृति है । जैन वाच्य-विषय और वाच्यार्थ में भेद करते हैं । शब्द का वाच्य-विषय बाह्य वस्तु है किन्तु उसका वाच्यार्थ या तात्पर्य आकृति है। आकृति हो ऐसा तत्त्व है जो एक ओर बाह्यार्थ (Object) से तथा दूसरी ओर वाच्यार्थ (Meaning) से सम्बन्धित होता है। न्यायदार्शनिकों ने इस आकृतिवाद के सिद्धान्त की निम्न आलोचना की है। प्रथमतः चु कि व्यक्ति अनेक हैं इसलिए आकृति अनेक होंगी। पूनः एक व्यक्ति की आकृति दूसरे व्यक्ति की आकृति से भिन्न होती है। एक शब्द परस्पर भिन्न अनेक आकृतियों का वाचक नहीं हो सकता है। पूनः किसी भी व्यक्ति के लिए यह असम्भव है कि वह उस जाति की सभी व्यक्तियों की आकृति को जान लें क्योंकि विशेष या व्यक्ति अनेक और अलग-अलग हैं इसलिए उनकी कोई एक आकृति नहीं हो सकती। एक सफेद गाय की आकृति काली गाय की आकृति से अवश्य भिन्न होगी। अतः आकतिवाद को मानने पर शब्द के अनेक वाच्यार्थ मानने होंगे। पूनः व्यक्ति में हो क्रियाकारित्व हो सकता है, आकृति में अर्थक्रियाकारित्व सम्भव नहीं। उदाहरण के लिए जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को गाय लाने या हटाने के लिए कहता है तो दूसरा व्यक्ति गाय के चित्र या उसकी मूर्ति को नहीं लाता है । अतः नैयायिकों का कथन है कि आकृतिवाद को यह अवधारणा समुचित नहीं है । जैनों ने भी ऐकान्तिक आकृतिवाद की आलोचना की है।' वस्तुतः आकृतिवाद का यह सिद्धान्त भारतीय परम्परा की दृष्टि से नैयायिकों और वैयाकरणिकों की विचारधारा के समन्वय का प्रयत्न है। नेयायिक शब्द का वाच्यार्थ वस्तु मानते हैं और वैयाकरणिक तथा किसी सीमा तक बौद्ध उसे बद्धयाकार मानते हैं। जैन अपने आकृतिवाद में इन दोनों का समन्वय इस प्रकार करते हैं कि एक ओर उसमें वाच्यार्थ के चेतसिक पक्ष या बुद्ध्याकार का ग्रहण हो जाता है तो दूसरी ओर वह बुद्धयाकार काल्पनिक न होकर के यथार्थ होता है क्योंकि आकृति सदैव ही किसो अनुभूत यथार्थ वस्तु की ही होती है । आकृतिवाद के सम्बन्ध में नामवाद और वस्तुवाद के बीच की स्थिति है। वह यह मानता है कि सामान्य जिसे मोमांसक शब्द का वाच्य मानते हैं वह न तो केवल नाम (मानसिक कल्पना) है और न विशेष या व्यक्ति से पृथक् उसकी कोई स्वतंत्र यथार्थ सत्ता ही है । वह एक ऐसा मानसिक बिम्ब या आकृति है जो विभिन्न विशेषों/व्यक्तियों की सादृश्यता के आधार पर बनती है। वह मानसिक होते हुए भी काल्पनिक या अयथार्थ नहीं है। जैन इसे ही शब्द का वाच्यार्थ मानते हैं साथ ही यह मानते हैं कि इस आकृति के आधार पर जिसमें संकेत ग्रहण होता है वह वास्तविक वस्तु विशेष है। शब्द से जिस वस्तु विशेष का ग्रहण होता है वह अपनी वर्ग की वस्तुओं से कथंचित् सादृश्य १, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १।५।३२-४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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