Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 85
________________ ७२ : जैन भाषादर्शन अभिप्राय ज्ञात नहीं होता है, अतः विशेष्य के बारे में विशेषण का निर्णय सम्भव नहीं होगा । यदि यह कहा जाये कि वक्ता को तो अपने अभिप्राय का बोध होता ही है अतः वह तो प्रतिनियत विशेषण का निश्चय कर ही लेगा। किन्तु ऐसा मानने पर शाब्दिक-कथन करना अनावश्यक होगा क्योंकि शब्द का कथन दूसरों को अर्थ को प्रतिपत्ति कराने के लिए होता है, स्वयं अपने लिये नहीं। तीसरा विकल्प अर्थात् विशेष्यपद विशेष्य को उभय अर्थात् विशेषण-सामान्य और विशेषण-विशेष दोनों से अन्वित कहता है, मानने पर उभयपक्ष के दोष आवेंगे अर्थात् न तो विशिष्ट वाक्यार्थ का बोध होगा और न निश्चयात्मक ज्ञान होगा । इसी प्रकार की आपत्तियाँ विशेष्य को क्रियापद (आख्यात-पद) और क्रिया-विशेषण पद से अन्वित मानने के सम्बन्ध में भी उपस्थित होगी । पुनः पूर्वपक्ष के रूप में मीमांसक प्रभाकर यदि यह कहें कि पद से पदान्तर के अर्थ का निश्चय होता है और फिर वह वाक्यार्थ का निश्चय करता है किन्तु ऐसा मानने पर तो रूपादि के ज्ञान से गंधादि का निश्चय भी मानना होगा, जो कि तर्क संगत नहीं है । अतः अन्विताभिधानवाद अर्थात् पदों से पदान्तारों के अर्थों से अन्वित अर्थ का ही कथन होता है और अन्वित पदों के अर्थ की प्रतीति से वाक्य के अर्थ की प्रतीति होती है-ऐसा प्रभाकर का मत श्रेयस्कर नहीं हैं। । वस्तुतः अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद दोनों ही एकांगी दृष्टिकोण हैं । जैन दार्शनिक अभिहितान्वयवाद की इस अवधारणा से सहमत हैं कि पदों (शब्दों) का वाक्य से स्वतन्त्र अपना निजी अर्थ भी होता है किन्तु साथ ही वे अन्विताभिधानवाद से सहमत होकर यह भी मानते हैं कि वाक्य में प्रयुक्त प्रत्येक पद अपना अर्थ बोध कराने के लिये अन्यपदों पर आश्रित होता है अर्थात् वाक्य में प्रयुक्त पद परस्पर अन्वित या सम्बन्धित होते हैं। सम्पूर्ण वाक्य के श्रवण के पश्चात् क्यार्थ का बोध होता है, उसमें पद परस्पर अन्वित या सापेक्ष हो होते हैं, निरपेक्ष नहीं है; क्योंकि निरपेक्ष पदों से वाक्य की रचना ही सम्भव नहीं होती है। जिस प्रकार शब्द अपने अर्थबोध के लिए वर्ण-सापेक्ष होते हैं, उसी प्रकार पद अपने अर्थबोध के लिये वाक्य सापेक्ष होते हैं। जैनाचार्यों के अनुसार परस्पर सापेक्ष पदों का निरपेक्ष समूह वाक्य है। अतः वाक्यार्थ का बोध पद-सापेक्ष और पद के अर्थ का बोध वाक्य-सापेक्ष है। यद्यपि इस समग्र विवाद के मूल में दो भिन्न-भिन्न दृष्टियाँ कार्य कर रही हैं । अभिहितान्वयवाद के अनुसार वाक्य पद सापेक्ष होता है, वे वाक्य में पदों की सत्ता को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं 1 पद ही वह इकाई है, जिस पर वाक्यार्थ निर्भर करता है। जबकि अन्विताभिधानवाद में पदों का अर्थ वाक्य सापेक्ष है, वाक्य से स्वतन्त्र वे न तो पदों की कोई सत्ता ही मानते हैं और न उनका कोई अर्थ ही है । वे वाक्य को ही एक इकाई मानते हैं। अभिहितान्वयवाद में पद मुख्य और वाक्य गौण है जबकि अन्विताभिधानवाद में वाक्य मुख्य और पद गौण है, यही दोनों का मुख्य अन्तर है जबकि जैन दार्शनिक पद और वाक्य दोनों को परस्पर सापेक्ष और वाक्यार्थ के बोध में समान रूप से बलशाली एवं आवश्यक मानते हैं। इस प्रकार वे इन दोनों मतों में समन्वय स्थापित करते हुए कहते हैं कि वाक्यार्थ के बोध में पद और वाक्य दोनों की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अतः किसो एक पर अधिक बल देना समोचीन नहीं है। पद और वाक्य न तो एक दूसरे से पूर्णतः भिन्न हैं और न पूर्णतः अभिन्न हैं अतः वाक्यार्थ-बोध में किसी की भी उपेक्षा सम्भव नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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