Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 87
________________ ७४ : जैन भाषादर्शन तत्त्वमीमांसा या अध्यात्मशास्त्र से सम्बन्धित है। जबकि नैगम आदि सप्त नय मूलतः भाषा-दर्शन से सम्बन्धित है । नय एवं निक्षेप दोनों ही सिद्धान्त यद्यपि शब्द के वाच्यार्थ (Meaning) निर्णय करने से सम्बन्धित है, फिर भी दोनों में अन्तर है । निक्षेप मूलतः शब्द के अर्थ का निश्चय करता है, जबकि नय वाक्य के अर्थ का निश्चय करता है । सप्तनयों में नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र - इन चार नयों को अर्थ नय और शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत- इन तीन नयों को शब्दनय कहा गया है ।' अर्थनय का सम्बन्ध वाच्य विषय (वस्तु) से और शब्दनय का सम्बन्ध वाच्यार्थ (Meaning) से माना जा सकता है । नैगमनय -- इन सप्त नयों में सर्वप्रथम नैगमनय आता है । नैगमनय मात्र वक्ता के संकल्प को ग्रहण करता है । नंगमनय की दृष्टि से किसी कथन के अर्थ का निश्चय उस संकल्प अथवा साध्य के आधार पर किया जाता है जिससे वह कथन किया गया है । नैगमनय सम्बन्धी प्रकथनों में वक्ता की दृष्टि सम्पादित की जानेवाली क्रिया के अन्तिम साध्य की ओर होती है । वह कर्म के तात्कालिक पक्ष की ओर ध्यान न देकर कर्म के प्रयोजन की ओर ध्यान देती है । प्राचीन आचार्यों ने नैगमनय का उदाहरण देते हुए बताया है कि जब कोई व्यक्ति स्तम्भ के लिए किसी जंगल से लकड़ी लेने जाता है और उससे पूछा जाता है कि भाई तुम किसलिए जंगल जा रहे हो ? तो वह कहता है मैं स्तम्भ लेने जा रहा हूँ । वस्तुतः वह जंगल से स्तम्भ नहीं अपितु लकड़ी ही लाता है । लेकिन उसका संकल्प या प्रयोजन स्तम्भ बनाना ही है । अतः वह अपने प्रयोजन को सामने रखकर ही कथन करता है । हमारी व्यावहारिक भाषा में ऐसे अनेक कथन होते हैं जब हम अपने भावी संकल्प के आधार पर ही वर्तमान व्यवहार का प्रतिपादन करते हैं । डाक्टरी में पढ़ने वाले विद्यार्थी को उसके भावी लक्ष्य की दृष्टि से डाक्टर कहा जाता है । नैगमनय के कथनों का वाच्यार्थ भविष्यकालीन साध्य या संकल्प के आधार पर निश्चित होता है । औपचारिक कथनों का अर्थ- निश्चय भी नैगमनय के आधार पर होता है । जैसे- प्रत्येक भाद्रकृष्णा अष्टमी को कृष्णजन्माष्टमी कहना । यहाँ वर्तमान में भूतकालीन घटना का उपचार है । संग्रह - भाषा के क्षेत्र में अनेक बार हमारे कथन व्यष्टि को गौण कर समष्टि के आधार पर होते हैं । जैन आचार्यों के अनुसार जब विशेष या भेदों की उपेक्षा करके मात्र सामान्य लक्षणों या अभेद के आधार पर जब कोई कथन किया जाता है तो वह संग्रहनय का कथन माना जाता है । उदाहरण के लिए जब कोई व्यक्ति यह कहे कि 'भारतीय गरीब हैं, तो उसका यह कथन व्यक्तियों पर लागू न होकर सामान्यरूप से भारतीय जनसमाज का वाचक होता है । प्रज्ञापनासूत्र में यह प्रश्न उठाया गया है कि जाति प्रज्ञापनीय भाषा सत्य मानी जाय अथवा असत्य | जाति प्रज्ञापनीय भाषा में समग्र जाति के सम्बन्ध में गुण, स्वभाव आदि का प्रतिपादन होता है, किन्तु ऐसे कथनों में अपवाद की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता । अतः यह प्रश्न भी उठ सकता है कि यदि उस कथन के अपवाद उपस्थित हैं तो उसे सत्य किस आधार पर कहा जाय । उदाहरण १. चत्वारोऽर्थाश्रयाः शेषास्त्रयं शब्दतः ।-सिद्धिविनिश्चय ७२ । २. संकल्पमात्र ग्राही नैगम । - सर्वार्थसिद्धि ११३३ । ३. सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रह । —जैनतर्कभाषा नयपरिच्छेद पृ० ६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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