Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 96
________________ भाषा की वाच्यता सामर्थ्य : ८३ का प्रश्न तो और भी जटिल हो जाता है। भारतीय चिन्तन में प्रारम्भ से लेकर आज तक सत्ता की वाच्यता और अवाच्यता का यह प्रश्न मानव-मस्तिष्क को झकझोरता रहता है। वस्तुतः सत्ता की अवाच्यता का कारण शब्द-भण्डार तथा शब्द-शक्ति की सीमितता और भाषा का अस्ति और नास्ति की सीमाओं से घिरा होना है। इसीलिये प्राचीन काल से ही सत्ता की अवाच्यता का स्वर मुखर होता रहा है। तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि वाणी वहाँ से लौट आती है अर्थात् उसे वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता।' इसी बात को पुष्टि केनोपनिषद् में भी की गई है। कठोपनिषद् में उसे वाणी और मन से अप्राप्य कहा गया है। परमसत्ता का ग्रहण वाणी और मन के द्वारा सम्भव नहीं है । माण्डूक्योपनिषद् में सत्ता को अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य और अवाच्य कहा गया है। जैन आगम आचारांग का भी कथन है कि वह (सत्ता) ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का विषय नहीं है, वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है । वहाँ वाणी मूक हो जाती है । तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं है, बुद्धि (मति) भी उसे ग्रहण करने में समर्थ नहीं है, अतः वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। किसी भी उपमा के द्वारा उसे समझाया नहीं जा सकता अर्थात् उसको कोई उपमा नहीं दी जा सकती। वह अनुपम, अरूपी सत्तावान् है । उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके। उपर्युक्त सभी कथन भाषा की सीमितता और अपर्याप्तता को तथा सत्ता की अवाच्यता या अवक्तव्यता ही सूचित करते हैं। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या तत्त्व या सत्ता को किसी भी प्रकार वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता है । यदि ऐसा होगा तो सारा वाक् व्यवहार निरर्थक होगा। श्रुतज्ञान, शास्त्र, आगम आदि व्यर्थ हो जायेंगे। यही कारण था कि जैन चिन्तकों ने सत्ता या तत्त्व को समग्रतः अवाच्य या अवक्तव्य मानते हुए भी अंशतः या सापेक्षतः वाच्य माना । क्योंकि उसे अवक्तव्य या अवाच्य कहना भी तो एक प्रकार का वचन या वाक व्यवहार ही है, यहाँ हमारा वाच्य यह है कि वह अवाच्य है । अतः हमें व्यवहार के स्तर पर उतर कर सत्ता की वक्तव्यता या वाच्यता को भी स्वीकार करना होगा। क्योंकि इसी आधार पर श्रतज्ञान एवं आगमों की प्रामाणिकता स्वीकार की जा सकती है। अवक्तव्यता का अर्थ जैन आचार्यों ने दूसरों के द्वारा किये गये संकेतों के आधार पर होनेवाले ज्ञान को श्रुत ज्ञान कहा है। समस्त सांकेतिक ज्ञान श्रुतज्ञान है। सभी सांकेतिक सूचनाएं जो किसी व्यक्ति के ज्ञान, १. यतो वाचो निवर्तन्ते-तैत्तिरीयोपनिषद् २।४। २. केनोपनिषद् ११४ । ३. कठोपनिषद् १।२।२० । ४. माण्डूक्योपनिषत्, ७। ५. आचारांग १।५।६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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