Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 111
________________ ९८ : जैन भाषादर्शन ११. व्याकृता व्याकृता से जैन विचारकों को क्या अभिप्रेत है यह स्पष्ट नहीं होता है । हमारी दृष्टि में व्याकृत IT अर्थ परिभाषित करना ऐसा हो सकता है। वे कथन जो किसी तथ्य की परिभाषायें हैं, इस कोटि में आते हैं । आधुनिक भाषा विश्लेषक दार्शनिकों की दृष्टि कहें तो वे पुनरुक्तियाँ हैं । न विचारकों ने इन्हें भी सत्य या असत्य की कोटि में नहीं रखा है, क्योंकि इनका कोई अपना विधेय नहीं होता है या ये कोई नवीन कथन नहीं करते हैं । १२. अव्याकृता वह भाषा जो स्पष्ट रूप से कोई विधि निषेध नहीं करती है अव्याकृत कही जाती है। जैसे— यह नहीं कहा जा सकता कि लोक शाश्वत है या अशाश्वत । अव्याकृत भाषा तथ्य का स्पष्ट रूप से विधान या निषेध नहीं करती है, इसलिए वह भी सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आती है । आज समकालीन दार्शनिकों ने भी आमंत्रणी, आज्ञापनीय, याचनीय, प्रच्छनीय और प्रज्ञापनीय आदि कथनों को असत्य - अमृषा (असत्यापनीय) माना है। एयर आदि ने नैतिक प्रकथनों को आज्ञापनीय मानकर उन्हें असत्यापनीय कहा है, जो जैन-दर्शन की उपर्युक्त व्याख्या के साथ संगतिपूर्ण है । भाषायी अभिव्यक्ति की सापेक्षिक सत्यता कथन की सत्यता और असत्यता के विवेचन के प्रसंग में हमें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि जैन दर्शन के अनुसार कथनों की सत्यता और असत्यता सापेक्ष ही होती है, निरपेक्ष नहीं । सम्पूर्ण सत्य को चाहे जाना जा सकता हो किन्तु कहा नहीं जा सकता । जब भी हम उसकी अभिव्यक्ति का कोई प्रयास करते हैं तो वह सीमित व सापेक्षिक बन जाता है । जैन आचार्यों का कहना है कि चाहे वह जिन के ही वचन क्यों न हों, वे भी सापेक्ष सत्य ही होते हैं, निरपेक्ष सत्य नहीं । चाहे सर्वज्ञ का जानना पूर्ण हो लेकिन अभिव्यक्ति तो सीमित ही होती है । चाहे तथ्यों को उनकी पूर्णता में जाना जा सकता हो किन्तु कहा नहीं जा सकता । इसीलिए कहा गया है कि जिनवचन भी नय से रहित नहीं होते' । क्योंकि सर्वज्ञ को भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए उसी भाषा का सहारा लेना होता है जो सीमित एवं सापेक्ष होती है तथा "है" और "नहीं है" की सीमा से घिरी हुई है । अतः भाषा के माध्यम से जो भी कहा जाता है वह सापेक्ष ही होता है और जो सापेक्ष होता है उसकी सत्यता अपने सीमित सन्दर्भ में ही होती है । अतः भाषायी अभिव्यक्तियाँ अपनी सत्यता की दृष्टि से सापेक्ष और सीमित होती हैं । सभी अपनी सत्यता और असत्यता ही उन्हें सत्य या असत्य कहा जा अधिक है तो यह कथन चीन के जो कथन सत्य या असत्य की कोटि में रखे जाते हैं वे को किसी सन्दर्भ विशेष में ही रखते हैं । उस सन्दर्भ विशेष में सकता है । यदि कहा जाये कि हिन्दुस्तान की जनसंख्या बहुत अतिरिक्त अन्य देशों की अपेक्षा से सत्य होगा किन्तु चीन की अपेक्षा से असत्य हो जायेगा । अतः भाषायी कथनों की सत्यता -असत्यता निरपेक्ष नहीं होती है । वह सापेक्ष ही होती है। जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि जन-साधारण का ज्ञान एवं कथन सीमित और सापेक्ष ही होता है । वैज्ञानिक १. णत्थि गये हि विहूणं सुत्तं अत्थो य जिणमए किचि । विशेषावश्यक भाष्य २२७७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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