Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 112
________________ भाषा और सत्य : ९९ अल्बर्ट आइन्स्टीन ने भी कहा था कि "हम केवल सापेक्षिक सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई पूर्ण द्रष्टा ही जान सकेगा"। (We can only know the relative truth, the real truth is known only to the universal observer—Cosmology Old and New, Page-13). यदि हमारा समस्त ज्ञान आंशिक अपूर्ण, एवं सापेक्षिक है तो हमें यह दावा करने का कोई अधिकार नहीं है कि मेरा कथन ही एक मात्र सत्य है । सम्भावना यह भी हो सकती है कि किसी अन्य दृष्टि से अथवा किसी अन्य सन्दर्भ में उस कथन का विरोधो कथन ही सत्य हो । चाहे केवलज्ञान की निरपेक्ष सत्यता को स्वीकार कर भी लिया जाये, किन्तु कथन की निरपेक्ष सत्यता तो कथमपि सम्भव नहीं है। जो कुछ भी कहा जाता है वह किसो सन्दर्भ विशेष में ही कहा जाता है। अतः उसकी सत्यता और असत्यता भी उसो सन्दर्भ विशेष में निहित होती है। किसी भी कथन की सत्यता और असत्यता उस सन्दर्भ से बाहर नहीं देखी जा सकती, जिसमें कि वह कहा गया है। अतः सत्यता या असत्यता का विचार किसी सन्दर्भ विशेष में सत्यता या असत्यता का विचार है। दूसरो महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यदि हमारी भाषा सापेक्ष है और उसकी सत्यता किसी दृष्टि विशेष, अपेक्षा विशेष या सन्दर्भ विशेष में निर्भर करती है तो हमें कथन की कोई ऐसी पद्धति खोजनो होगो जो अपनी बात को कहकर भी अपने विरोधो कथनों की सत्यता की सम्भावना का निषेध न करे। जैन आचार्यों ने इस प्रकार की कथन पद्धति का विकास किया है और उसे स्यादवाद एवं सप्तभंगो के नाम से विवेचित किया है। स्याद्वाद और सप्तभंगी क्या है, इस सन्दर्भ में तो यहाँ कोई विस्तृत चर्चा नहीं करना चाहते, किन्तु मैं इतना अवश्य ही कहना चाहूँगा कि हमारा कथन सत्य रहे और हमारे वचन व्यवहार से श्रोता को कोई भ्रान्ति न हो, इसलिए कथन पद्धति में हमें अपने विधि-निषेधों को सापेक्ष रूप से ही रखना चाहिए। यह सापेक्षिक कथन-पद्धति ही स्याद्वाद है । जैन आचार्यों ने स्यात् को सत्य का चिह्न' इसीलिए कहा है कि अपेक्षापूर्वक कथन करके जहाँ एक ओर वह हमारे कथन को अविरोधी और सत्य बना देता है, वहीं दूसरी ओर श्रोता को कोई भ्रान्ति नहीं होने देता। भगवान् महावीर ने इसीलिए अपने भिक्षुओं को स्पष्ट निर्देश दिया था कि वे ऐसी भाषा का प्रयोग करें जो विभज्यवादी हो । विभज्यवाद भाषायी अभिव्यक्तियों की वह प्रणाली है जो प्रश्नों को विभाजित करके उत्तर देती है। भगवान महावीर और भगवान् बुद्ध दोनों ने ही इस बात पर सर्वाधिक बल दिया था कि हमें अपनी भाषा को स्पष्ट बनाना चाहिए। विभज्यवाद के सन्दर्भ में पूर्व में कहा जा चुका है। विभज्यवाद कथन की वह प्रणाली है जो किसी प्रश्न के सन्दर्भ में ऐकान्तिक निर्णय नहीं देकर प्रश्न का सम्यक विश्लेषण करती है। जब बुद्ध से यह पूछा गया कि गृहस्थ आराधक होता है या प्रवजित ? तो उन्होंने कहा कि यदि गृहस्थ और प्रवजित दोनों ही मिथ्यावादी हैं तो वे आराधक नहीं हैं। किन्तु यदि वे मिथ्यावादी नहीं हैं तो वे आराधक हो सकते हैं। इसी प्रकार जब जयन्ती ने महावीर से पूछा कि कि सोना अच्छा है या जागना ? तो उन्होंने कहा कुछ जीवों का सोना अच्छा है कुछ का जागना। १. देखें-जैनदर्शन ( डॉ. महेन्द्रकुमार ) पृ० ३६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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