Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 105
________________ २२ : जैन भाषादर्शन के स्थान पर संयोजना-सत्य और काल-सत्य का उल्लेख किया है । भगवती आराधना में योगसत्य के स्थान पर संभावना सत्य का उल्लेख हुआ है। १. जनपद-सत्य-जिस देश में जो भाषा या शब्द-व्यवहार प्रचलित हो, उसी के द्वारा वस्तुतत्त्व का संकेत करना जनपद-सत्य है । एक जनपद या देश में प्रयुक्त होने वाला वही शब्द दूसरे देश में असत्य हो जायेगा । बाईजी शब्द मालवे में माता के लिए प्रयुक्त होता है, जबकि उत्तर प्रदेश में वेश्या के लिए । अतः बाईजी से माता का अर्थबोध मालवे के व्यक्ति के लिए सत्य होगा, किन्तु उत्तर प्रदेश के व्यक्ति के लिए असत्य । ___२. सम्मत-सत्य-वस्तु के विभिन्न पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग करना सम्मत-सत्य है, जैसे-राजा, नृप, भूपति आदि । यद्यपि ये व्युत्पत्ति की दृष्टि से अलग-अलग अर्थों के सूचक हैं । जनपद-सत्य एवं सम्मत-सत्य प्रयोग-सिद्धान्त (Use Theory) से आधारित अर्थबोध के सूचक हैं। ३. स्थापना-सत्य-शतरंज के खेल में प्रयुक्त विभिन्न आकृतियों को राजा, वजीर आदि नामों से संबोधित करना स्थापना-सत्य है, इसमें वस्तु के प्रतिबिम्ब या स्थानापन्न को भी उसी नाम से संबोधित किया जाता है, जैसे महावीर की प्रतिमा को महावीर कहना। ४. नाम-सत्य-गुण-निरपेक्ष मात्र दिये गये नाम के आधार पर वस्तु को सम्बोधित करना यह नाम-सत्य है । एक गरीब व्यक्ति को भी "लक्ष्मीपति" नाम दिया जा सकता है, उसे इस नाम से पुकारना नाम-सत्य है। ५. रूप-सत्य-वेश के आधार पर व्यक्ति को उस नाम से पुकारना रूप-सत्य है, चाहे वस्तुतः वह वैसा न हो, जैसे-नाटक में राम अभिनय करने वाले व्यक्ति को "राम" कहना या साधुवेशधारी को साधु कहना। ६. प्रतीति-सत्य-सापेक्षिक कथन अथवा प्रतीति को सत्य मानकर चलना प्रतीत्य-सत्य है। जैसे अनामिका बड़ी है, मोहन छोटा है आदि । इसी प्रकार आधुनिक खगोल-विज्ञान की दृष्टि से "पृथ्वी स्थिर है" यह कथन भी प्रतीत्य सत्य है वस्तुतः सत्य नहीं। ७ व्यवहार सत्य-व्यवहार में प्रचलित भाषायी प्रयोग व्यवहार सत्य कहे जाते हैं यद्यपि वस्तुतः वे असत्य होते हैं । जैसे-घड़ा झरता है, बनारस आ गया, यह सड़क बंबई जाती है। वस्तुतः घड़ा नहीं पानी झरता है, बनारस नहीं आता हम बनारस पहुँचते हैं। सड़क स्थिर है वह नहीं जाती है, उस पर चलने वाला जाता है। ८. भाव-सत्य-किसी एक गुण की प्रमुखता के आधार पर वस्तु को वैसा कहना भावसत्य है। जैसे अंगूर मोठे हैं यद्यपि उनमें खट्टापन भी रहा हुआ है। ९. योग-सत्य-वस्तु के संयोग के आधार पर उसे उस नाम से पुकारना योग-सत्य है । जैसे दण्ड धारण करने वाले को दण्डी कहना या जिस घड़े में घी रखा जाता है उसे घी का घड़ा कहना। -राजवार्तिक ११२० १. नामरूपस्थापनाप्रतीत्य संवृति संयोजना जनपद देशभाव समयसत्यभेदेन । २. देखें, भगवती आराधना ११८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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