Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 106
________________ भाषा और सत्य : ९३ १०. उपमा-सत्य-यद्यपि चंद्रमा और मुख दो भिन्न तथ्य हैं और उनमें समानता भी नहीं है फिर भी उपमा में ऐसे प्रयोग होते हैं। जैसे चंद्रमुखी, मृगनयनी आदि । लोक भाषा में इसे सत्य माना जाता है। वस्तुतः सत्य के इन दस रूपों का संबंध तथ्यगत सत्यता के स्थान पर भाषागत सत्यता से है। भाषा-व्यवहार में इन्हें सत्य माना जाता है। यद्यपि कथन की सत्यता मूलतः तो उसकी तथ्य से संवादिता पर निर्भर करती है। फिर भी अपनी व्यावहारिक उपादेयता के कारण ही इन्हें सत्य की कोटि में परिगणित किया गया है। असत्य भाषा जैन दार्शनिकों ने सत्य के साथ-साथ असत्य के स्वरूप पर भी विचार किया है। असत्य का अर्थ है कथन का तथ्य से विसंवादी होना या विपरीत होना। प्रश्नव्याकरण में असत्य की काफी विस्तार से चर्चा है । उसमें असत्य के ३० पर्यायवाची नाम दिये गये हैं। मुख्यतः असत्य-वचन के चार प्रकार हैं अलीक-जिसका अस्तित्व नहीं है उसको अस्ति-रूप कहना अलीक वचन है । अवलोप–सद्वस्तु को नास्ति रूप कहना अवलोप है। विपरीत-वस्तु के स्वरूप का भिन्न प्रकार से प्रतिपादन करना विपरीत कथन है। एकान्त-ऐसा कथन, जो तथ्य के सम्बन्ध में अपने पक्ष का प्रतिपादन करने के साथ अन्य पक्षों या पहलुओं का अपलाप करता है, वह भी असत्य माना गया है । इसे दुर्नय भी कहा गया है। ___ इनके अतिरिक्त जैनों के अनुसार हिंसाकारी वचन, कटु-वचन, विश्वासघात, दोषारोपण आदि भी असत्य के ही रूप हैं। भगवती आराधना में असत्य के निम्न चार भेद बतलाये हैं-१. सद्भूत वस्तु का निषेध करना, २. असद्भूत (अनिस्तित्ववान) का विधान करना, ३. अन्यथा कथन (विपरीत कथन) अर्थात् वस्तु को अपने स्वरूप से भिन्नरूप में कहना, ४. गहित, सावद्य और अप्रिय वचन ।। प्रज्ञापनासत्र में असत्य या मषा भाषा के निम्न दस भेद बताये गये हैं-(१) क्रोध-नि:सत (२) मान-निःसृत, (३) माया-निःसृत, (४) लोभ-निःसृत, (५) प्रेम-निःसृत, (६) द्वेष-निःसृत, (७) हास्य-निःसृत, (८) भय-निःसृत, (९) आख्यायिका-निःसृत और (१०) उपघात-निःसृत । वस्तुतः यहाँ दार्शनिक दृष्टि से यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि क्रोध, अहंकार, कपटवृत्ति, लोभ, राग, द्वेष और हास्य और भय के वशीभूत होकर बोली गई भाषा को असत्य क्यों कहा गया ? यद्यपि क्रोध, भय आदि की स्थिति में बोला गया वचन अधिकांश रूप में तथ्य का विसंवादी भी होता है लेकिन कभी-कभी वह सत्य भी होता है, फिर भी जैन आचार्यों ने इसे सत्य की कोटि में १. प्रश्नव्याकरणसूत्र ११२।६।। २. भगवतीआराधना गाथा ८१८ से ८२३ । ३. मोसा णं भंते। भासा पज्जत्तिया कतिविहा पन्नत्ता? गोयमा । दसविहा पन्नत्ता, तं जहा--कोहनिस्सिया १, माननिस्सिया २, मायानिस्सिया ३, लोहनिस्सिया ४, पेज्जणिनिस्सिया ५, दोसनिस्सिया ६, हासणिस्सिया ७, भयनिस्सिया ८, अक्खाइयानिस्सिया ९, उवघाइयनिस्सिया १०।। -प्रज्ञापनासूत्र, भाषापद, १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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