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९० : जैन भाषादर्शन अधिक सत्य के निकट पहुँचती है। भाषा की सत्यता और असत्यता उसकी संकेत-शक्ति के साथ जुड़ी हुई है। शब्द अर्थ (वस्तु या तथ्य) के संकेतक हैं। वे उसके हू-ब-हू (यथार्थ) प्रतिबिम्ब नहीं
शब्द में मात्र यह सामर्थ्य रही हई है कि वे श्रोता के मनस में वस्तु का मानस-प्रतिबिम्ब (Image) उपस्थित कर देते हैं । अतः शब्द के द्वारा प्रत्युत्पन्न मानस-प्रतिबिम्ब यदि तथ्य का संवादी है, अर्थात् उससे अनुरूपता रखता है तो वह कथन सत्य माना जाता है और इसके विपरीत कथन असत्य माना जाता है । यद्यपि यहाँ भी अनुरूपता वर्तमान मानस-प्रतिबिम्ब और पूर्ववर्ती या परवर्ती मानस-प्रतिबिम्ब में ही होती है, जब किसी मानस-प्रतिबिम्ब का सत्यापन परवर्ती मानसप्रतिबिम्ब अर्थात् ज्ञानान्तर-ज्ञान से होता है तो उसे परतः प्रामाण्य कहा जाता है और जब उसका सत्यापन पूर्ववर्ती मानस-प्रतिबिम्ब से होता है तो स्वतः प्रामाण्य कहा जाता है; क्योंकि अनुरूपता या विपरीतता मानस-प्रतिबिम्बों में ही हो सकती है। यद्यपि दोनों ही प्रकार के मानस-प्रतिबिम्बों का आधार या उनकी उत्पत्ति ज्ञेय (प्रमेय) से होती है। यही कारण था कि वादिदेवसूरि ने प्रामाण्य (सत्यता) और अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति को परतः माना । प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति को परतः कहने का तात्पर्य यही है कि इन मानस-प्रतिबिम्बों का उत्पादक तत्त्व इनसे भिन्न है। कुछ विचारक यह भी मानते हैं कि कथन के सत्यापन या सत्यता के निश्चय में शब्द द्वारा उत्पन्न मानस-प्रतिबिम्ब और अनुभव के द्वारा उत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब में तुलना होती है। यद्यपि वस्तुवादी दृष्टिकोण यह मानेगा कि ज्ञान और कथन की सत्यता का निर्धारण मानस-प्रतिबिम्ब की तथ्य या वस्तु से अनुरूपता के आधार पर होता है। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि यह अनुरूपता भी वस्तुतः मानस-प्रतिबिम्ब और वस्तु के बीच न होकर शब्द निर्मित मानस-प्रतिबिम्ब और परवर्ती इन्द्रिय-अनुभव के द्वारा उत्पन्न मानस-प्रतिबिम्ब के बीच होती है। यह तलना दो मानसिक प्रतिबिम्बों के बीच है न कि तथ्य और कथन के बीच । तथ्य और कथन दो भिन्न स्थितियाँ हैं। उनमें कोई तुलना या सत्यापन सम्भव नहीं है । शब्द वस्तु के समग्र प्रतिनिधि नहीं, संकेतक हैं और उनकी यह संकेत-सामर्थ्य भी वस्तुतः उनके भाषायी प्रयोग पर निर्भर करती है। हम वस्तु को कोई नाम देते हैं और प्रयोग के द्वारा उस "नाम" में एक ऐसी सामर्थ्य विकसित हो जाती है कि उस "नाम" के श्रवण या पठन से हमारे मानस में एक प्रतिबिम्ब खड़ा हो जाता है। यदि उस शब्द के द्वारा प्रत्युत्पन्न वह प्रतिबिम्ब हमारे परवर्ती इन्द्रियानुभव से अनुरूपता रखता है तो हम उस कथन को "सत्य" कहते हैं। भाषा में अर्थ-बोध की सामर्थ्य प्रयोगों के आधार पर विकसित होती है। वस्तुतः कोई शब्द या कथन अपने आप में न तो सत्य होता है और न असत्य । अंग्रेजी भाषा का कोई कथन अंग्रेजी भाषा के जानकार के लिए सत्य या असत्य हो सकता है, किन्तु केवल हिन्दी भाषा के जानकार के लिए वह न तो सत्य है और न असत्य । कथन की सत्यता और असत्यता तभी सम्भव होती है, जबकि श्रोता को कोई अर्थ-बोध (वस्तु का मानस-प्रतिबिम्ब) होता है। अतः पुनरुक्तियों एवं परिभाषाओं को छोड़कर कोई भी भाषायी कथन निरपेक्ष रूप से न तो सत्य होता है, और न असत्य । पुनः किसी भी कथन सत्यता या असत्यता किसी सन्दर्भ-विशेष में ही सम्भव होती है। जैन दर्शन में कथन को सत्यता का प्रश्न
जैन दार्शनिकों ने कथन की सत्यता और असत्यता के प्रश्न पर गम्भीरता से विचार किया है। प्रज्ञापना सूत्र (पन्नवना) में सर्वप्रथम भाषा को पर्याप्त भाषा और अपर्याप्त भाषा ऐसे दो भागों
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