Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 100
________________ अध्याय ७ भाषा और सत्य सामान्यतया कथन के प्रामाण्य या सत्यता का तात्पर्य कथन की वाच्य-विषय के साथ अनुरूपता या संवादिता से है । यद्यपि कथन की सत्यता के सम्बन्ध में एक दूसरा दृष्टिकोण स्वयं कथन का संगतिपूर्ण होना भी है, क्योंकि जो कथन आन्तरिक विरोध से युक्त है, वह असत्य माना जाता है, उदाहरण के लिए यह कहना है कि जो दिखाई देता है वह अदृश्य है, मोहन बन्ध्या पुत्र है आदि, स्वयं ही कथन की असत्यता सूचित करता है । इन कथनों में आन्तरिक विरोध है अतः ये असत्य हैं। जैन दर्शन के अनुसार वस्तू स्वरूप का अपने यथार्थ रूप में अर्थात् जैसा वह है उस रूप में कथन करना अर्थात् कथन का अपने वाच्य से अव्यभिचारी होना ही कथन की प्रामाणिकता है। यहाँ यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है कि कथन की प्रामाणिकता या सत्यता का निर्णय कैसे होता है ? क्या कथन स्वयं ही अपनी सत्यता का बोध करा देता है या उसके लिए किसी अन्य आधार की अपेक्षा होती है ? अथवा कथन की प्रामाणिकता के लिए कथन और कथ्य की संवादिता (अनुरूपता) को देखना होता है। ज्ञान को सत्यता का प्रश्न वस्तुतः कथन की सत्यता का यह प्रश्न अन्ततोगत्वा ज्ञान की सत्यता का प्रश्न बन जाता है, क्योंकि कथन की सत्यता का आधार कथन को श्रवण करने पर श्रोता की चेतना में बनने वाला मानस प्रतिबिम्ब है जो कि स्वयं ज्ञान रूप है, अतः कथन की सत्यता मूलतः ज्ञान की सत्यता है । भाषाजन्य-ज्ञान अर्थात् श्रुतज्ञान ज्ञान का ही एक भेद है। अतः उसकी सत्यता का निश्चय भो उसी आधार पर होगा। पाश्चात्य परम्परा में ज्ञान की सत्यता के प्रश्न को लेकर तीन प्रकार की अवधारणाएँ हैं-(१) संवादिता सिद्धान्त (२) संगति सिद्धान्त और (३) उपयोगितावादी (अर्थक्रियाकारी) सिद्धान्त । भारतीय दर्शन में यह संवादिता का सिद्धान्त परतः प्रामाण्यवाद के रूप में और संगतिसिद्धान्त स्वतः प्रामाण्यवाद के रूप में स्वीकृत है। अर्थक्रियाकारी-सिद्धान्त को परतः प्रामाण्यवाद की हो एक विशेष विधा कहा जा सकता है। जैन दार्शनिकों ने इस सम्बन्ध में किसी ऐकान्तिक दृष्टिकोण को न अपनाकर यह माना कि ज्ञान के प्रामाण्य या सत्यता का निश्चय स्वतः और परतः दोनों प्रकार से होता है। यद्यपि, जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति का आधार (कसौटी) ज्ञान स्वयं न होकर ज्ञेय है। प्रमाणनयतत्त्वालोक में वादिदेवसूरि ने कहा है कि प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति तो परतः ही होती है किन्तु ज्ञप्ति स्वतः और परतः दोनों प्रकार से होता है। क्योंकि ज्ञान की प्रामाण्यता और अप्रामाण्यता का आधार ज्ञान न १. ज्ञानस्य प्रमेयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यम् ।" तदुभयमुत्पत्ती परतः एव, ज्ञप्तौ तु स्वत: परतश्च-प्रमाणनय तत्वालोक १६१८-१९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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