Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 95
________________ ८२ : जेन भाषादर्शन दूसरे शब्द की अपने विषय की वाच्यता - सामर्थ्य भी सीमित ही है । शब्द-शक्ति की इस सीमितता का कारण यह है कि अनुभूतियों की एवं भावनाओं की जितनी विविधताएँ हैं उतने शब्द नहीं हैं । अपने वर्ण्य विषयों की अपेक्षा शब्द संख्या और शब्द-शक्ति दोनों ही सीमित हैं । " उदाहरण के लिये 'मीठा' शब्द को लीजिये । हम कहते हैं कि गन्ना मोठा है, गुड़ मीठा है, आम मीठा रसगुल्ला मीठा है, तरबूज मीठा है आदि-आदि। यहाँ हम सभी के मीठेपन की अनुभूति के लिये एक ही शब्द 'मीठा' प्रयोग कर रहे हैं किन्तु हम यह बहुत ही स्पष्ट रूप से जानते हैं कि सबके मीठेपन का स्वाद एक समान नहीं है। तरबूज मीठा है और आम मीठा है इन दोनों कथनों में 'मीठा' नामक शब्द एक ही प्रकार की अनुभूति का द्योतक नहीं है । यद्यपि पशुओं के ध्वनि संकेतों और शारीरिक संकेतों की अपेक्षा मनुष्य के शब्द संकेतों में भावाभिव्यक्ति एवं विषयाभिव्यक्ति की सामर्थ्य काफी व्यापक है. किन्तु उसकी भी अपनी सीमायें हैं । भाषा की और शब्द-संकेत की इन सीमाओं पर दृष्टिपात करना अति आवश्यक है । क्योंकि विश्व में वस्तुओं, तथ्यों और भावनाओं की जो अनन्तता है उसकी अपेक्षा हमारा शब्द भण्डार अत्यन्त सीमित है । एक 'लाल' शब्द को ही लीजिए | वह लाल नामक रंग का वाचक है किन्तु लालिमा को अनेक कोटियाँ हैं, अनेक अंश (डिग्रीज) हैं, अनेक संयोग (काम्बिनेशन्स) हैं । क्या एक ही 'लाल' शब्द भिन्न प्रकार की लालिमाओं का वाचक हो सकता है। एक और उदाहरण लीजिए— एक व्यक्ति जिसने गुड़ के स्वाद का अनुभव किया है, उस व्यक्ति से जिसने कभी गुड़ के स्वाद का अनुभव नहीं किया है, जब यह कहता है कि गुड़ मीठा होता है, तो क्या श्रोता उससे मीठेपन को उसी अनुभूति को ग्रहण करेगा जिसे वक्ता ने अभिव्यक्त किया है। गुड़ को मीठास की एक अपनी विशिष्टता है । उस विशिष्टता का ग्रहण किसी दूसरे व्यक्ति को तब तक ठीक वैसा ही नहीं हो सकता है जब तक कि उसने स्वयं गुड़ के स्वाद की अनुभूति नहीं की हो। क्योंकि शब्द सामान्य होता है सत्ता विशेष होती है । सामान्यशब्द विशेष-वस्तु का संकेतक हो सकता है, लेकिन उसका समग्र निर्वचन नहीं कर सकता है । शब्द अपने अर्थ (विषय) को मात्र सूचित करता है । शब्द और उसके विषय में तद्रूपता नहीं है, जैनों के अनुसार शब्द को अभिसमय या परम्परा के द्वारा अर्थ (मिनिंग) दिया जाता है । बौद्धों ने शब्द को विकल्पयोनि (विकल्पयोनयः शब्दाः ) कहा है । शब्द अपने अर्थ या विषय का वाचक होते हुए भी उसमें और उसके विषय में कोई समानता नहीं है । यहाँ तक कि उसे अपने विषय का सम्पूर्ण एवं यथार्थ चित्र भी नहीं कहा जा सकता । यद्यपि शब्द में पूर्व निर्धारित वाच्य वाचक सम्बन्ध के आधार पर, अपने अर्थं (विषय) का चित्र उपस्थित करने की सामर्थ्य तो होती है, किन्तु यह सामथ्यं सीमित एव सापेक्ष ही है । सत्ता की वाच्यता का प्रश्न इस प्रकार भाषा या शब्द-संकेत अपने विषयों या अपने अर्थों के संकेतक तो अवश्य हैं किन्तु उनकी अपनी सीमायें भी हैं । इसीलिए सत्ता या वस्तु-तत्त्व किसी सीमा तक वाच्य होते हुए भी अवाच्य बना रहता है। वस्तुतः जब जीवन की सामान्य अनुभूतियों और भावनाओं को ही शब्दों एवं भाषा के द्वारा पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है तो फिर परम सत्ता के निर्वाचन १. शब्दादच सर्वे संख्येया एव, द्रव्यपर्यायाः पुनः संख्येयाऽसंख्येयानन्तभेदाः न ते सर्वे विशेषाकारेण तैर्विषयी क्रियन्ते । -राजवार्तिक १।२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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