Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 93
________________ अध्याय ६ भाषा की वाच्यता सामर्थ्य भाषा को वाच्यता सामर्थ्य सीमित और सापेक्ष यहाँ दार्शनिक प्रश्न यह है कि क्या शब्द-प्रतीकों या भाषा में अपने विषय या अर्थ को अभिव्यक्ति करने की सामर्थ्य है ? क्या कुर्सी शब्द कुर्सी नामक वस्तु को और प्रेम शब्द प्रेम नामक भावना को अपनी समग्रता के साथ प्रस्तुत कर सकता है ? यह ठीक है कि शब्द अपने अर्थ (विषय) का वाचक अथवा संकेतक है किन्तु क्या कोई भी शब्द अपने वाच्य विषय की पूर्णतया अभिव्यक्ति करने में सक्षम है ? क्या शब्द अपने विषय के समस्त गुण-धर्मों और पर्यायों (अवस्थाओं) एक समग्र चित्र प्रस्तुत कर सकता है ? वस्तुतः इस प्रश्न का उत्तर कठिन है। यदि हम यह मानते हैं कि शब्द अपने अर्थ या विषय का वाचक नहीं है तो फिर भाषाजन्य ज्ञान की प्रामाणिकता और भाषा की उपयोगिता संदेहात्मक बन जाती हैं। किन्तु इसके विपरीत यह मानना भी पूर्णतया सही नहीं है कि शब्द अपने अर्थ या विषय का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन करने में समर्थ है और वह अपने वाच्य का यथार्थ चित्र श्रोता के सम्मुख प्रस्तुत कर देता है । जैसा कि हमने देखा है, जैन आचार्यों ने शब्द और उसके अर्थ (विषय) के सम्बन्ध को लेकर एक मध्यममार्गीय दृष्टिकोण अपनाया है । न तो वे बौद्धों के समान यह मानने के लिए सहमत हैं कि शब्द अपने अर्थ या विषय का ही नहीं करता है और न मीमांसकों एवं वैयाकरणिकों के समान यह मानते हैं कि शब्द अपने विषय का समग्न चित्र प्रस्तुत कर सकता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार शब्द और उसके द्वारा संकेतित अर्थ या विषय में एक सम्बन्ध तो है, किन्तु वह सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि शब्द अपने विषय या अर्थ का स्थान ही ले ले। शब्द अर्थ या विषय का संकेतक तो है, किन्तु उसका स्थान नहीं ले सकता है । अर्थबोध की प्रक्रिया में शब्द को अपने अर्थ या विषय का प्रतिनिधि (रिप्रेजेन्टेटिव) तो कहा जा सकता है, फिर भी शब्द अपने विषय या अर्थ का हूबहू चित्र नहीं है । जैसे नक्शे में प्रदर्शित नदी वास्तविक नदी की संकेतक तो है किन्तु न तो वह वास्तविक नदी है और न उसका हबह प्रतिबिम्ब ही है, वैसे ही शब्द और उनसे निर्मित भाषा भी अपने अर्थ या विषय की संकेतक तो है किन्तु उसका हूबहू प्रतिबिम्ब नहीं है। फिर भी शब्द अपनी सहज योग्यता और संकेतक शक्ति से विषय का एक चित्र श्रोता या पाठक के सम्मुख अवश्य उपस्थित कर देता है। जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय में ज्ञापक और ज्ञाप्य सम्बन्ध है उसी प्रकार शब्द और अर्थ (विषय) में प्रतिपादक और प्रतिपाद्य या वाचक और वाच्य सम्बन्ध है। यद्यपि जैन दार्शनिक शब्द और उसके अर्थ में सम्बन्ध स्वीकार करते हैं किन्तु यह सम्बन्ध मोमांसकों के समान नित्य सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि भाषा के प्रचलन में अनेक बार शब्दों के अर्थ (विषय) बदलते रहे हैं और एक समान उच्चारण के शब्द भी दो भिन्न भाषाओं में भिन्न अर्थ रखते हैं। शब्द अपने अर्थ का संकेतक अवश्य है किन्तु अपने अर्थ के साथ उसका न तदुत्पत्ति सम्बन्ध है और न तद्रूपता सम्बन्ध है। जैन दार्शनिक मीमांसकों के समान शब्द और अर्थ में नित्य तथा तद्रूप सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124